________________ अनाचारश्रत : पंचम अध्ययन : सूत्र 781 ] [ 159 गोचर होते हैं, देव और नारक नहीं / अत: संसार दो ही गतियोंवाला है, इन्हीं दो गतियों में सुखदुःख की न्यूनाधिकता पाई जाती है / अतः संसार द्विगतिक मानना चाहिए, चातुर्गतिक नहीं / परन्तु यह मान्यता अनुमान और पागम प्रमाणों से खण्डित हो जाती है। यद्यपि नारक और देव अल्पज्ञोंछद्मस्थों को प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं होते, परन्तु अनुमान और आगम प्रमाण से इन दोनों गतियों की सिद्धि हो जाती है / शास्त्रकार कहते हैं---'अस्थि चाउरते संसारे' / देव उत्कृष्ट पुण्यफल के भोक्ता और नारक उत्कृष्ट पापफल के भोक्ता होते हैं। इसलिए चारों गतियों का अस्तित्व सिद्ध होने से चातुर्गतिक संसार मानना चाहिए। (12) देव और देवी-यद्यपि चातुर्गतिक संसार में देवगति के सिद्ध हो जाने से देवों और देवियों का भी पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो जाता है तथापि कई मतवादी मनुष्यों के अन्तर्गत ही राजा, चक्रवर्ती या धनपति आदि पुण्यशाली पुरुष-स्त्रो को देव-देवी मानते हैं, अथवा ब्राह्मण या विद्वान् को देव एवं विदुषी को देवी मानते हैं, पृथक देवगति में उत्पन्न देव या देवी नहीं मानते / उनकी इस भ्रान्त मान्यता का निराकरण करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है—देव या देवी का पृथक् अस्तित्व मानना चाहिए / भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चारों प्रकार के देव पृथक्-पृथक् निकाय के होते हुए भी इन सबका देवपद से ग्रहण हो जाता है। ज्योतिष्कदेव तो प्रत्यक्ष हैं, शेष देव भी अनुमान एवं आगम प्रमाण से सिद्ध हैं। (13) सिद्धि, प्रसिद्धि और आत्मा की स्वस्थान-सिद्धि--समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य सुखरूप आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो जाना सिद्धि है / इसे मोक्ष या मुक्ति भी कहते हैं / सिद्धि से जो विपरीत हो वह असिद्धि है, यानी शुद्धस्वरूप की उपलब्धि न होना-संसार में परिभ्रमण करना / असिद्धि संसाररूप है। जिसका वर्णन पहले किया जा चुका है / जब असिद्धि सत्य है, तो उसकी प्रतिपक्षी समस्त कर्मक्षयरूप सिद्धि भी सत्य है क्योंकि सभी पदार्थों का प्रतिपक्षी अवश्य होता है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरणरूप मोक्षमार्ग की आराधना करने से समस्त कर्मों का क्षय हो कर जीव को सिद्धि प्राप्त होती है। अतः अनुमान, आगम आदि प्रमाणों से, अंशतः प्रत्यक्षप्रमाण से तथा महापुरुषों द्वारा सिद्धि के लिए प्रवृत्ति करने से सिद्धि सिद्ध होती है / कई दार्शनिक कहते हैं-हिंसा से सर्वथा निवृत्ति किसी भी साधक की नहीं हो सकती, क्योंकि जल, स्थल आकाश, आदि में सर्वत्र जीवों से पूर्ण लोक में अहिंसक रहना संभव नहीं है। परन्तु हिंसादि पाश्रव-द्वारों को रोक कर पांच समिति-त्रिगुप्तिसम्पन्न निर्दोष भिक्षा से जीवननिर्वाह करता हुआ एवं ईर्याशोधनपूर्वक यतना से गमनादिप्रवृत्ति करता हुआ साधु भावशुद्धि के कारण कर्मबन्ध नहीं करता, इस प्रकार के साधु को समस्त कर्मों का क्षय होने से सिद्धि या मुक्ति प्राप्त होती है। प्रसिद्धि का स्वरूप तो स्पष्टतः सिद्ध है, अनुभति का विषय है / सिद्धि जीव (शुद्ध-मुक्तात्मा) का निज स्थान है। समस्त कर्मों के क्षय होने पर मुक्तजीव जिस स्थान को प्राप्त करता है, वह लोकाग्रभागस्थित सिद्धशिला ही जीव का निजी सिद्धिस्थान है। वहां से लौट कर वह पुनः इस असिद्धि (संसार) स्थान में नहीं आता। कर्मबन्धन से मुक्त जीव की ऊर्ध्वगति होती है, वह ऊर्ध्वगति लोक के अग्रभाग तक ही होती है, धर्मास्तिकाय का निमित्त न मिलने से आगे गति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org