________________ प्राथमिक 287 - नरक का पर्यायवाची 'निरय' शब्द है, जिसका अर्थ होता है- सातावेदनीयादि शुभ या इष्टफल जिसमें से निकल गए हैं, वह निरय है। / नियुक्तिकार ने निक्षेप की दृष्टि से नरक के 6 अर्थ किये हैं- 'नामनरक' और 'स्थापनानरक' हैं। द्रव्यनरक के मुख्य दो भेद-आगमतः, नो आगमतः / जो नरक को जानता है. किन्त उसमें उपयोग नहीं रखता, वह आगमतः द्रव्यनरक है। नो आगमतः द्रव्यनरक (ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तरूप) वे जीव हैं जो इसी लोक में मनुष्य या तिर्यञ्च के भव में अशुभ कर्म करने के कारण अशुभ हैं, या बंदीगृहों; बन्धनों या अशुभ, अनिष्ट क्षेत्रों में परिवारों में नरक-सा कष्ट पाते हैं, अथवा द्रव्य और नोकर्मद्रव्य के भेद से द्रव्यनरक दो प्रकार का है। जिनके द्वारा नरक वेदनीय कर्म बंधे जा चुके हैं, वे एकभविक, बद्धायुष्क और अभिमुखनामगोत्र (कर्म) की दृष्टि से द्रव्य नरक है, नोकर्मद्रव्य की दृष्टि से 'द्रव्यनरक' इसी लोक में अशुभ शब्द, रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श हैं / नारकों के रहने के 84 लाख स्थान 'क्षेत्रनरक' है। जिस नरक की जितनी स्थिति है, वह 'कालनरक' है। नरकयोग्य कर्म का उदय या नरकायु का भोग 'मावनरक' है। अथवा नरक में स्थित जीव या नरकायु के उदय से उत्पन्न असातावेदनीयादि कर्मोदय वाले जीव भी 'भावनरक' कहे जा सकते हैं / प्रस्तुत अध्ययन में क्षेत्रनरक, कालनरक और भावनरक की दृष्टि से निरूपण किया गया है। विभक्ति कहते हैं--विभाग यानी स्थान को। इस दृष्टि से 'नरक (निरय) विभक्ति' का अर्थ हुआ वह अध्ययन, जिसमें नरक के विभिन्न विभागों-स्थानों के क्षेत्रीय दुःखों, पारस्परिक दुःखों तथा परमाधार्मिक असुरकृत दुःखों का वर्णन हो / तात्पर्य यह है कि हिंसा आदि भयंकर पापकर्म करने वाले जीवों का विभिन्न नरकावासों में जन्म लेकर भयंकर शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पशंकृत क्षेत्रीय दुःखों के अतिरिक्त पारस्परिक एवं परमाधार्मिककृत कैसे-कैसे घोर दुःख सहने पड़ते हैं ? इन अनिष्ट विषयों से नारकों को कैसी वेदना का अनुभव होता है ? उनके मन पर क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ होती हैं, इन सबका सम्पूर्ण वर्णन नरकविभक्ति' अध्ययन के दोनों उद्देशकों में है। प्रथम उद्देशक में 27 और द्वितीय उद्देशक में 25 गाथाएँ हैं।" - स्थानांग सूत्र में नरकगति के चार और तत्त्वार्थ सूत्र में नरकायु के दो मुख्य कारणों का उल्लेख है। तथा जो लोग पापी हैं---हिंसक, असत्यभाषो, चोर, लुटेरे, महारम्भी-महापरिग्रही हैं, असदाचारी-व्यभिचारी हैं, उन्हें इन नरकावासों में अवश्य जन्म लेना पड़ता है। अतः धीर साधक नरकगति या नरकायुबन्धन के इन कारणों और उनके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दारुण दुःखों 5 निर्गतमयं शुभमस्मादिति निरयः, अथवा निर्गतमिष्टफलं सातावेदनीयादि रूपं येभ्यस्ते निरयाः / 6 सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 64-65 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 122 (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा०१ पृ० 146 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org