________________ 104] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निष्कर्ष-जिस मत या मतानुयायी में अहिंसा धर्म नहीं है, हिंसा का प्रतिपादन धर्म आदि के नाम से है, वह अधर्म स्थान की कोटि में आता है, जब कि जिस मत या मतानुयायी में अहिंसा धर्म सर्वांग-रूप में व्याप्त है, हिंसा का सर्वथा निषेध है, वह धर्मस्थान को कोटि में आता है। यही धर्मस्थान और अधर्मस्थान की मुख्य पहचान है। परिणाम-शास्त्रकार ने अधर्मस्थान और धर्मस्थान दोनों के अधिकारी व्यक्तियों को अपनेअपने शुभाशुभ विचार-अविचार से सदाचार-कदाचार सद्व्यवहार-दुर्व्यवहार ग्रादि के इहलौकिकपारलौकिक फल भी बताए हैं, एक अन्तिम लक्ष्य (सिद्धि, बोधि, मुक्ति, परिनिर्वाण सर्वदुःखनिवृत्ति) प्राप्त कर लेता है, जबकि दूसरा नहीं। तेरह ही क्रियास्थानों का प्रतिफल-- ७२१–इच्चेतेहिं बारसहि किरियाठाणेहि वट्टमाणा जीवा नो सिज्झिसु [नो] बुझिसु जाव नो सवदुक्खाणं अंतं करेंसु वा करेंति का करिस्संति वा। एतम्मि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिभिसु बुझिसु मुच्चिसु परिणिब्वाइंसु सव्वदुक्खाणं अंतं करिसु वा करेंति वा करिस्संति वा / एवं से भिक्ख आतट्ठी प्रातहिते प्रातगुत्ते' प्रायजोगी प्रातपरक्कमे प्रायरक्खिते प्रायाणुकंपए प्रायनिष्फेडए प्रायाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्ति बेमि / ॥किरियाठाणः बितियं अज्झयणं सम्मत्तं // ७२१–इन (पूर्वोक्त) बारह क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीत में सिद्ध नहीं हए, बुद्ध नहीं हुए, मुक्त नहीं हुए यावत् सर्व-दुःखों का अन्त न कर सके, वर्तमान में भी वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, यावत् सर्वदुःखान्तकारी नहीं होते और न भविष्य में सिद्ध बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वदुःखान्तकारी होंगे। परन्तु इस तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव अतीत, वर्तमान एवं भविष्य में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सर्वान्तकृत् हुए हैं, होते हैं और होंगे। इस प्रकार (बारह क्रियास्थानों का त्याग करने वाला) वह आत्मार्थी, आत्महिततत्पर, प्रात्मगुप्त (आत्मा को पाप से बचाने वाला), प्रात्मयोगी, प्रात्मभाव में पराक्रमी, आत्मरक्षक (आत्मा की संसाराग्नि से रक्षा करने वाला), आत्मानुकम्पक (प्रात्मा पर अनुकम्पा करने वाला), मात्मा का जगत् से उद्धार करने वाला उत्तम साधक (भिक्षु) अपनी आत्मा को समस्त पापों से निवृत्त करे / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-क्रियास्थानों का प्रतिफल-प्रस्तुत सूत्र में इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने पूर्वोक्त 13 क्रियास्थानों का संक्षेप में प्रतिफल दिया है, ताकि हेय-हेय-उपादेय का साधक विवेक कर सके / तेरहवाँ क्रियास्थान भी कब ग्राह्य, या त्याज्य भी?—प्रस्तुत सूत्र में 12 क्रियास्थानों को 1. 'अप्पगुत्ता'-ण परपच्चएण / प्रात्मगुप्त—स्वत: आत्मरक्षा करने वाले की दृष्टि से प्रयुक्त है ।—"प्रात्मनैव संजम-जोए जुजति, सयमेवपरक्कमंति / " अर्थात्-अपने आप ही संयम योग में जुटाता, है, स्वयमेव पराक्रम करता है। -सू. चू. (मू. पा. टि.) पृ. 193 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org