________________ तृतीय उद्देशक : गाथा 64 से 66 शान्ति प्राप्त कर लेता। वही समय पर भुवन (सृष्टि) का गोप्ता (रक्षक) है, वही विश्वाधिप है, सभी प्राणियों में गूढ है, जिसमें ब्रह्मर्षि और देवता लीन होते हैं। उसी को जानकर मृत्युपाश का छेदन करते हैं।' नैयायिक जगत् को महेश्वर कृत सिद्ध करने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग करते हैं--- "पृथ्वी, पर्वत, चन्द्र, सूर्य, समुद्र, शरीर, इन्द्रिय आदि सभी पदार्थ किसी बुद्धिमान कर्ता द्वारा बनाये गये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं / जो-जो कार्य होते हैं, वे किसी न किसी बुद्धिमान कर्ता के द्वारा ही किए जाते हैं, जैसे कि घट / यह जगत् भो कार्य है, अतः वह भी किसी बुद्धिमान द्वारा ही निर्मित होना चाहिए / वह बुद्धिमान जगत् का रचयिता ईश्वर (महेश्वर) ही है / जो बुद्धिमान द्वारा उत्पन्न नहीं किये गये हैं, वे कार्य नहीं हैं, जैसे कि आकाश / यह व्यतिरेक दृष्टान्त है। - ईश्वर को जगत् कर्ता मानने के साथ-साथ वे उसे एक, सर्वव्यापी (आकाशवत्) नित्य स्वाधीन, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान भी मानते हैं / संसारी प्राणियों को कर्मफल भुगतवाने वाला भी ईश्वर है, ऐसा कहते हैं / नैयायिक वेदान्तियों की तरह ईश्वर को उपादानकारण या समवायीकारण नहीं मानते, वे उसे निमित्तकारण मानते हैं / ईश्वर कर्तृत्व के विषय में वैशेषिकों की मान्यता भी लगभग ऐसी ही है। प्रधानादिकृत लोक-सांख्यवादी कहते हैं-यह लोक प्रधान अर्थात् प्रकृति के द्वारा किया गया है। प्रकृति, सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्यावस्था है / इसलिए जगत् का मूल कारण प्रधान को कहें या त्रिगुण (सत्त्व, रज और तम) को कहें, एक ही बात है। इन्हीं गुणों से सारा लोक उत्पन्न हुआ है / सृष्टि त्रिगुणात्मक कहलाती है / जगत् के प्रत्येक पदार्थ में तीन गुणों की सत्ता देखी जाती है / इसलिए सिद्ध है कि यह जगत त्रिगुणात्मक प्रकृति से बना है। मूलपाठ में कहा गया है-'पहाणाइ तहावरे'-आदि पद से महत्तत्त्व (बुद्धि), अहंकार आदि का ग्रहण करना चाहिए। सांख्य दर्शन का सिद्धान्त है त्रिगुणात्मक प्रकृति सीधे ही इस जगत् को उत्पत्र नहीं करती। प्रकृति मूल, अविकृति (किसी तत्त्व के विकार से रहित) और नित्य है, उससे महत् (बुद्धि) तत्त्व उत्पन्न होता है, महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्रा (इन्द्रिय विषय) पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय और मन ये 16 तत्त्व (षोडशगण) उत्पन्न होते हैं, पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पाँच भूत उत्पन्न होते हैं / इस क्रम से प्रकृति सारे लोक को उत्पन्न करती है। 12 (क) द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्त चैवामूर्तं च, मयं चामृतं च, स्थितं च यच्च त्यच्च / -बृहदारण्यकोपनिषद् अ० 2 ब्रा० 311 (ख) ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथा निकायं सर्वभूतेषु गूढम् / -श्वेताश्वतर० अ० 37 (ग) 'जन्माद्यस्य यतः' -ब्रह्मसूत्र 1111 (घ) कर्तास्ति कश्चित् जगतः सचैकः, सः सर्वगः स स्ववशः स नित्यः / इमा कुहेवाकविडम्बनास्युस्तेषां न येषमनुशासकस्त्वम् / --स्याद्वाद मंजरी 13 (क) 'सत्त्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिः / -सांख्यतत्त्व कौमुदी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org