________________ 202 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा वे माता और अन्य गुरुजनों का पालन करते हैं। उत्तरा='उत्तरोत्तरजाता' यानी एक के बाद एक जन्मे हुए। कहीं-कहीं 'उत्तमा' पाठान्तर भी है; अर्थ होता है-सुन्दर श्रेष्ठ महुरुल्लावा-मधुरो-मनोश उल्लापः -~आलापो तेषां ते तथाविधाः, जिनकी बोली मधुर-मनोज्ञ है, गंतु-घर जाकर अपने स्वजन-वर्ग को देखकर / अकामगं= अनिच्छन्तं- गृहव्यापारेच्छारहित=घर के कामकाज करने की इच्छा से रहित (अनिच्छक)। परपकम-स्वेच्छानुसार अवसर प्राप्त किसी काम को करने से / चूणिकार सम्मत पाठान्तर है--परक्कमंतं अर्थ किया गया है-अपनी रुचि अनुसार पराक्रम करते हुए तुम को / हत्यीवा वि नवग्गहे नये पकड़े हुए हाथी की तरह / ' 'सूतीगोव्व'-प्रसूता गाय की तरह / पाताला व अतारिया=अतल समुद्र की तरह दुस्तर / मालुया=लता। असमाहिणा-असमाधि पैदा करने वाले रुदन-विलापादि कृत्यों से। चूणिकार असमाधिता पाठान्तर भी मानते हैं / अर्थ है---असमाधिपन / कोवाजत्थ य कीसंति---असमर्थ साधक इन अनुकूल उपसों के आने पर क्लेश (जन्ममरणादिरूप संसार भ्रमण का दुःख) पाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-कोवा जत्थावकीसंति-अल्पसत्व साधक जिस उपसर्ग के आने पर मोक्षगुण से या धर्म से अपकृष्ट-दूर हो जाते हैं / एक और चणिसम्मत पाठान्तर है-कोवा जत्थ विसणे सी-कीवा जत्थ विसणं एसंतीति विसण्णेसी....... विसष्णा वा आसन्ति विसण्णासी / अर्थात्-जहाँ कायर साधक विषाद को प्राप्त करते हैं, अथवा विषण्ण होकर बैठ जाते हैं। महासवा-महान् कर्मों के आस्रवद्वार हैं / अहिमे-- अथ का अर्थ है--- इसके अनन्तर ये (पूर्वोक्त स्वजन संगरूप उपसर्ग)। "अहो इमे' इस प्रकार का पाठान्तर भी वृत्तिकार ने सूचित किया है। जिसका अर्थ होता है- आश्चर्य है, ये प्रत्यक्ष निकटवर्ती एवं सर्वजनविदित / अवसपंति--अप्रमत्तता-सावधानीपूर्वक उससे दूर हट जाते हैं / भोग निमत्रण रुप उपसर्ग : विविध रूपों में 166. रायाणो रायमच्चा य माहणाऽदुव खत्तिया। निमंतयंति भोहि भिक्खुयं साहुजीविणं // 15 // 167. हत्थऽस्स-रह-जाणेहि विहारगमणेहि य / भुज भोगे इमे सग्धे महरिसी पूजयामु तं // 16 / / 198. वत्थगंधालंकारं इत्थीओ सयणाणि य / भुजाहिमा भोगाइं आउसो पूजयामु तं / / 17 / / 166. जो तुमे नियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि सुव्वता। अगारमावसंतस्स सव्वो संविज्जए तहा // 18 / / 200. चिरं दूइज्जपाणस्स दोसो दाणि कुतो तव / इच्चेव णं निमति नीवारेण व सूयरं / / 16 // 7 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 84 से 86 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० 34-35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org