________________ सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य / (3) पाँचों इन्द्रियों का उपयोग भी अनासक्तिपूर्वक अत्यन्त अल्प किया जाए, इन्द्रियों के मनोज्ञअमनोज्ञ विषयों पर रागद्वेष न किया जाए, इन्द्रियों का दमन किया जाए। (4) काया से ममत्व का व्युत्सर्ग किया जाए, उसे सभी प्रकार से बुरी प्रवृत्तियों से रोका जाए। केवल संयमाचरण में लगाया जाए। (5) काया इतनी कष्टमाहिष्णु बना ली जाए कि प्रत्येक परीषह और उपसर्ग समभाव पूर्वक सह सके। तितिक्षा को ही इस साधना में प्रधान समझे। (6) मन को क्षमाशील, कषायादि रहित, विषय-भोगों में अनासक्त, इहलौकिक-पारलौकिक निदानों (सुखाकांक्षाओं), यश, प्रसिद्धि, प्रशंसा आदि की लालसा से दूर रखना है / (7) मन-वचन-काया को समस्त व्यायारों से रोककर मन को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानो में से किसी एक के द्वारा धर्मध्यान या शुक्लध्यान के अभ्यास में लगाना है। (8) सारी शक्तियां जीवनपर्यन्त आत्मरमणता या मोक्ष-साधना में लगानी है। पण्डितवीर्य की साधना में शरीर गौण होता है, आत्मा मुख्य / अत: शरीर की भक्ति छोड़कर ऐसे साधक को आत्म-भक्ति पर ही मुख्यतया ध्यान देना चाहिए। तभी उसकी शक्ति सफल हो सकेगी, उसका समग्र जीवन भी पण्डितवीर्य की साधना में लगेगा और उसकी मृत्यु भी इसी साधना (पण्डितमरण की साधना) में होगी।५६ वोत गेही- इसके दो अर्थ किये गए हैं -(1) विषयों की आकांक्षारहित (2) चूर्णिकार के अनुसारनिदानादि में गृद्धि से विमुक्त, जो परिपूर्ण होने पर न तो राग (मोह) करता है और न ही किसी पदार्थ को पाने की आकांक्षा करता है / ॥वीर्य : अष्टम अध्ययन समाप्त / / 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175 20 (क) सूयगडंग चणि मू० पा० टिप्पण 78 (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org