________________ धर्म : नवम अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांग सूत्र (प्र. श्रु०) के नवम अध्ययन का नाम 'धर्म' है। - धर्म शब्द शुभकर्म, कर्तव्य, कुशल अनुष्ठान, सुकृत, पुण्य, सदाचार, स्वभाव, गुण, पर्याय, धर्मा स्तिकाय, द्रव्य, मर्यादा, रीति, व्यवहार आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।' - नियुक्तिकार ने नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की दृष्टि से धर्म के चार निक्षेप किये हैं। नाम और स्थापना धर्म तो सुगम है / द्रव्यधर्म सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य के स्वभाव अर्थ में है। अथवा षड्द्रव्यो में जो जिसका स्वभाव है, वह उसका द्रव्य धर्म है। इसके अतिरिक्त कुल, ग्राम, नगर, राष्ट्र आदि से सम्बन्धित जो गृहस्थों के नियमोपनियम, मर्यादाएँ, कर्तव्य अथवा दायित्व के रूप में कुलधर्म, ग्रामधर्म आदि हैं उन्हें तथा अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार के पुण्य हैं, उन्हें भी द्रव्यधर्म समझना चाहिए। 9 भावधर्म के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर / लौकिक धर्म दो प्रकार है-गृहस्थों का और पाषण्डियों का / लोकोत्तर धर्म सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से तीन प्रकार का है। नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन में भावधर्म का ही अधिकार है, क्योंकि वहीं वस्तुतः धर्म है।' / प्रस्तुत अध्ययन में ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पत्र साधु के लिए वीतरागप्ररूपित लोकोत्तर धर्म (आचार-विचार) का निरूपण किया गया है / विशेषतः षड्जीवनिकाय के आरम्भ, परिग्रह आदि में ग्रस्त व्यक्ति इह-परलोक में दुःखमुक्त नहीं हो सकते, इसलिए साधु को परमार्थ (मोक्षमार्ग) का विचार करके निर्ममत्व, निरारम्भ, निरहंकार, निरपेक्ष एवं निष्परिग्रह होकर संयम धर्म में उद्यम करने का निर्देश किया गया है, तथा मृषावाद, मैथुन, परिग्रह, अदत्तादान, माया, लोभ, क्रोध, मान आदि को तथा शोभा के लिए प्रभालन, रंजन, वस्तीकर्म, विरेचन, वमन, अंजन, 1 पाइअ सद्दमहण्णवो पृ० 485 2 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 66 से 101, (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 175-176 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org