________________ 146 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 126. जो साधु अधिकरण (कलह या विवाद) करता है, और हठपूर्वक या मुंहफट होकर भयंकर कठोर वचन बोलता है, उसका बहुत-सा अर्थ (संयमधन या मोक्षरूप प्रयोजन) नष्ट हो जाता है / इसलिए पण्डित (सद्-असद् विवेकी) मुनि अधिकरण न करे / विवेचन-अधिकरण निषेध-~-प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए अधिकरण सर्वथा वर्जनीय बताया है। इसके दो लक्षण बताये गये हैं-अधिकरणशील साधु रौद्रध्यान इा, रोष, द्वेष, छिद्रान्वेषण, कलह आदि पाप-दोष बटोरता है, (2) वह हपूर्वक प्रकट रूप में भयंकर कठोर वचन बोलता है। परिणाम-अधिकरण करने वाले साधु का बहुत-सा संयमधन लुट जाता है, अथवा उसका मोक्षरूप प्रयोजन सर्वथा नष्ट हो जाता है। कहा भी है "ज अज्जियं समोखल्लएहि तवनियमवंभमाइएहिं / माहु तयं कलहंता छड्डे अहसागपतेहि / / --चिरकाल तक कठोर तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य आदि बड़ी मुश्किल से जो सत्फल उपाजित किया है, उसे तुच्छ बातों के लिए कलह करके नष्ट मत करो, ऐसा पण्डितजन उपदेश देते हैं। अधिकरणकर का अर्थ--- बात को अधिकाधिक बढ़ा-चढ़ाकर करना, उसे बतंगड़ बना देना, और विवाद खड़ा करके कलह करना अधिकरण है। बात-बात में जिसका अधिकरण करने का स्वभाव हो जाता है, उसे 'अधिकरण कर' कहते हैं।० सामायिक-साधक का आचार 130 सीओदगपडिदुगुञ्छिणो, अपडिण्णस्स लवावसक्किणो। सामाइयमा तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुजती // 20 / / 131 न य संखयमाहु जीवियं, तह वि य बालजणे पगन्भती। बाले पावेहि मिज्जती, इति संखाय मुणी ण मज्जती / / 21 // 132 छदेण पलेतिमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा। वियडेण पलेति माहणे, सीउण्हं वयसाऽहियासए / / 22 / / 110 जो साधु ठण्डे (कच्चे अप्रासुक) पानी से घृणा (अरुचि करता है, तथा मन में किसी प्रकार की प्रतिज्ञा (सांसारिक कामना पूर्ति का संकल्प- निदान) नहीं करता, कर्म (बन्धन) से दूर रहता है. तया जो गृहस्थ के भाजन (वर्तन) में भोजन नहीं करता, उस साधु के समभाव को सर्वनों ने सामायिक (समतायोग) कहा है। 20 (क) सुत्रकृतांग समयार्थबोधिती टीका, भाग 1. पृ० 585 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 354 (ग) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org