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________________ 270 सूत्रकृतांग-चतुर्य अध्ययन--स्त्रीपरिज्ञा आवसा निमंतेति --वृत्तिकार के अनुसार अपने साथ सम्भोग के लिए आमंत्रित करती हैं। चूणिकार 'आयसा' का संस्कृत रूपान्तर 'आत्मसात् करते हैं, तदनुसार अर्थ होता है-अपने साथ घुल मिलाकर हार्दिक आत्मीयता बताकर समागम के लिए आमंत्रित करती हैं। उवगसित्ताणं-वृत्तिकार के अनुसार'उपस श्लिष्य-समीपमागत्य' निकट आकर / चाणकार सम्मत पाठान्तर है-उपक्कमित्ता, अर्थ किया गया है-अल्लिइला=पास में अड़कर। आणवयति-वृत्तिकार के अनुसार आज्ञा करती है, प्रवृत्त करती है, साधु को अपने वश में जानकर नौकर की तरह उस पर आज्ञा (हुक्म) चलाती हैं। चूणिकारसम्मत पाठान्तर है-'आणमति' अर्थ किया गया है-'भुक्तभोगः कुमारगो वा तत्प्रयोजनात्यन्तपरोक्षः आनम्यते / अर्थात्-भुक्तभोगी या कुआरे साधु को अपने प्रयोजन से अत्यन्त परोक्ष यानी अंधेरे में रखकर अपने साथ सहवास के लिए झुका लेती है। विवेगमायाए-वृत्तिकार के अनुसार विवेक ग्रहण करके, चूर्णिकार सम्मत पाठ है--विवागमाताते=अपने कुकृत्य का विपाक-फल प्राप्त कर या जानकर / सुतवस्सिए वि= वृत्तिकार के अनुसार---विकृष्टतपोनिष्ट तप्तदेहोऽपि' अर्थात् लम्बी-लम्बी उत्कट तपस्या के द्वारा जिसने अपने शरीर को अच्छी तरह तपा लिया है, ऐसा सुतपस्वी भी, चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-सुतमस्सितो वि== श्रुतमाश्रितोऽपि, अर्थात्-जो सदैव शास्त्राश्रित-शास्त्रों के आधार पर चला है. ऐसा साधु भी। 'जो विहरे सह गमित्थीसु' वृत्तिकार के अनुसार--समाधि की शत्रु स्त्रियों के साथ विहार न करेन कहीं जाए, न बैठे-उठे। चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है—णो विरहे सहणमियीसुविरहो नाम नक्त दिवा वा शून्यागारादि पइरिक्कजणे वा स्वगृहे, सहणं ति देसीभासा, सहेत्यर्थः / विरहे-का अर्थ है रात्रि या दिन में सूने मकान आदि निर्जन स्थान में या स्त्री के अपने जनशून्य घर में स्त्रियों के साथ (सहण देशीय शब्द है, उसका 'साथ' अर्थ होता है) न रहे / ओए='ओजः एकः असहायः सन्' साधु ओज यानी अकेला (किसी साथी साधु के बिना) होकर / 'समणं पि दट्ठदासीणं वृत्तिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं(१) श्रमण को एकान्त स्थान में अकेली स्त्री के साथ आसीन बैठे) देखकर, (2) श्रमण को भी अपने ज्ञान, ध्यान, तथा दैनिक चर्या के प्रति उदासीन (लापरवाह) होकर केवल अमुक स्त्री के साथ बातचीत करते देखकर / (3) अथवा उदासीन-राग-द्वषरहित मध्यस्थ, श्रमण-तपस्वी (विषयसुखेच्छारहित) को भी एकान्त में स्त्री के साथ बातें करते देखकर / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है - 'समणं मपि वठ्ठदासोणा' =श्रमणम्प्रत्यपि दृष्टवा उदासीनां 'उदासीणा णाम येषामप्यसौ भार्या न भवति' = श्रमण के प्रति भी अमुक स्त्री को उदासीन (उनके प्रति भी भार्याभाव से रहित) देखकर। 'तम्हा समणा ण समें ति आतहिताय सणि सेज्जाओ'-वृत्तिकार के अनुसार चूंकि स्त्रियों के साथ संसर्ग अतिपरिचय (संस्तव) से समाधि योग का नाश होता है, इसलिए श्रमण (सुसाधुगण) सुखोत्पादक एवं मनोऽनुकूल होने से निषद्या (स्त्रियों की बैठक या निवासस्थली) के समान निषद्या या स्त्रियों के द्वारा बनाया हुआ विलास का अड्डा-माया हो, अथवा स्त्रियों को बस्ती (आवासस्थान) हो, वहाँ आत्महित की दृष्टि से नहीं जाते / चूणिकार लगभग ऐसा ही पाठ मानकर अर्थ करते है-तम्हा समणा.." ण समें ति-- ण समुपागच्छन्ति, आतहियाओ-आत्मने हितम् आत्मनि वा हितम् / सण्णिसेज्जाओ-सणसेज्जा नाम गिहिसेज्जा संथवसंकथाओ य / इस (स्त्रीसंस्तव अनर्थकारी होने के कारण श्रमण आत्मा के लिए अथवा आत्मा में हित के कारण सनिषद्या या सन्निशय्याओं के पास नहीं फटकते-उनके आसपास चारों ओर नहीं जाते। सन्निषद्या का सीधा अर्थ है-गृहस्थ शय्या तथा स्त्रियों के साथ संस्तव-संकथाएँ आदि जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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