________________ माथा 528 से 534 317 दूर न होने से अनार्य हैं / वे सम्यग्दर्शन रहित होने के कारण विषय प्राप्ति का ही दुर्ध्यान करते हैं, (5) सम्यग्दर्शनादि धर्म रूप जो निदोष मोक्ष मार्ग हैं, उससे भिन्न कुमार्ग की प्ररूपणा करने तथा सांसारिक राग के कारण बुद्धि कलुषित और मोह-दूषित होने से समाग की विराधना करके कुमार्गाचरण करने के कारण वे शुद्ध भाव मार्ग से दूर हैं, (6) छिद्र वाली नौका में बैठा हुआ जन्मान्ध व्यक्ति नदी पार न होकर मंझधार में डूब जाता है, इसी प्रकार आश्रव रूपी छिद्रों से युक्त कुदर्शनादि युक्त कुधर्म नौका में बैठे होने के कारण वे भी संसार सागर के पार न होकर बीच में ही डूब जाते हैं। भावमार्ग की साधना 528. इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं / तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए / / 32 // 526. विरते गामधम्मेहि, जे केइ जगतो जगा / तेसिं अत्तुवमायाए, थाम कुव्वं परिवए // 33 // 530. अतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते / सव्वमेयं निराकिच्चा, निव्वाणं संधए मुणो // 34 / / 531. संधते साहुधम्म च, पावं धम्म गिराकरे। उवधाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं न पत्थए // 35 // 532. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागता। संति तेसि पतिट्ठाणं, भूयाणं जगती जहा // 36 // 533. अह णं वतमावणं, फासा उच्चावया फुसे / ण तेसु विणिहण्णेज्जा, वातेणेव महागिरो // 37 // 534. संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे। निव्वुडे कालमाकखो, एवं केवलिणो मयं // 38 // ति बेमि / // मग्गो : एगारसमं अज्झयणं सम्मत्तं / / 528. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित इस (दुर्गति निवारक मोक्षप्रापक सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप) धर्म को ग्रहण (स्वीकार) करके शुद्ध मार्ग साधक साधु महाघोर (जन्म-मरणादि दीर्घकालिक दुःखपूर्ण) संसार सागर को पार करे तथा आत्मरक्षा के लिए संयम में पराक्रम करे। 526. साधु ग्राम धर्मों (शब्दादि विषयों) से निवृत्त (विरत) होकर जगत् में जो कोई (जीवितार्थी) प्राणी हैं, उन सुखप्रिय प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उन्हें दुःख न पहुँचाए, उनकी रक्षा के लिए पराक्रम करता हुआ संयम-पालन में प्रगति करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org