________________ 316 सूत्रकृतांग-षष्ठ अध्ययन-महावीर स्तव O 'वीर' शब्द के निक्षेप दृष्टि से 6 अर्थ नियुक्तिकार ने बताए हैं-(१) नामवीर, (2) स्थापना वीर, (3) द्रव्यवीर, (4) क्षेत्रवीर, (5) कालवीर और (6) भाववीर / नाम-स्थापना वीर सुगम है / 'द्रव्यवीर' वह है, जो द्रव्य के लिए युद्धादि में वीरता दिखाता है, अथवा जो द्रव्य वीर्यवान हो / तीर्थकर अनन्त बल-वीर्य युक्त होते हैं, चक्रवर्ती भी सामान्य मनुष्यों या राजाओं आदि से बढ़कर बल-वीर्यवान होते हैं। इसलिए ये द्रव्यवीर कहे जा सकते हैं। अपने क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम दिखाने वाला क्षेत्रवीर' है। जो अपने युग या काल में अद्भुत पराक्रमी होता है अथवा काल (मृत्यु) पर विजय पा लेता है, वह कालवीर है। भाववीर वह है, जिसकी आत्मा रागद्वेष, क्रोवादि कषाय, पंचेन्द्रिय-विषय, काम, मोह, मान, तथा उपसर्ग, परीषह आदि पर परम विजय प्राप्त कर लेती है। - यहाँ 'वीर' शब्द से मुख्यतया 'भाववीर' ही विवक्षित है / महती भाववीरता के गुणों के कारण यहाँ 'महावीर' शब्द व्यक्तिवाचक होते हुए भी गुणवाचक है। - आभूषण, चन्दन, पुष्पमाला आदि सचित्त-अचित्त द्रव्यों द्वारा अथवा शरीर के विविध अंगों के नमन, संकोच तथा वाचा-स्फुरण आदि द्रव्यों से जो स्तुति की जाती है, वह द्रव्यस्तुति है, और विद्यमान गुणों का उत्कोर्तन, गुणानुवाद आदि हृदय से किया जाता है, वहीं भावस्तृति है। प्रस्तुत में तीर्थकर महावीर की भावस्तुति ही विवक्षित है। यही 'महावीरस्तव' का भावार्थ है। 0 प्रस्तुत अध्ययन में भगवान महावीर स्वामी के ज्ञानादि गुणों के सम्बन्ध में श्री जम्बूस्वामी द्वारा उठाए हुए प्रश्न का गणधर श्री सुधर्मास्वामो द्वारा स्तुति सूचक शब्दों में प्रतिपादित गरिमा महिमा-मण्डित सांगोपांग समाधान है। 10 उद्देशक रहित प्रस्तुत अध्ययन में 26 सूत्रगाथाअ द्वारा भगवान महावीर के अनुपम धर्म, ज्ञान, दर्शन, अहिंसा, अपरिग्रह, विहारचर्या, निश्चलता, क्षमा, दया, श्रु त, तप, चारित्र, कषाय-विजय, ममत्व एवं वासना पर विजय, पापमुक्तता, अद्भुत त्याग आदि उत्तमोत्तम गुणों का भावपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अप्टविध कर्मक्षय के लिए उनके द्वारा किये गये पुरुषार्थ, 3 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास आ० 1 पृ० 146 4 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 83, 84, (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 142 (य) जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिण / एग जिणेज अप्पाणं एस से परमो जओ। पंचेदियाणि काहं, माणं माय, तेहब लोहं च / दुज्जयं चेव अप्पाणं, सबमप्पे जिए जियं / / 5 (क) सूत्र वृ० नियुक्ति गा० 85 पूर्वार्द्ध --उत्तरा० अ० 6, गा० 34, 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org