________________ प्रयम उद्देशक : गाथा 247 से 277 255 266. 'स्त्रीसंसर्ग बहुत बुरा होता है', यह हमने सुना है, कई अनुभवियों का भी यही (कथन) कहना है / स्त्रीवेद (वशिक काम शास्त्र) का भी यही कहना है कि अब मैं ऐसा नहीं करूंगी', यह कह कर भी वे (काम कला-निपुण स्त्रियां) कर्म से अपकृत्य करती हैं। 270. स्त्रियाँ मन से और कुछ सोचती हैं, वाणी से दूसरी बात बोलती हैं और कर्म से और ही करती हैं / इसलिए स्त्रियों को बहुत माया (कपट) वाली जानकर उन पर विश्वास (श्रद्धा) न करे। 271. कोई युवती विचित्र आभूषण और वस्त्र पहन कर श्रमण से यों कहे कि- "हे कल्याण करने वाले या संसार से पार करने वाले, अथवा हे भय से बचाने वाले साधो ! मैं विरत (संसार से विरक्त) हो गई हूँ, मैं अब संयम पालन करूँगी, आप मुझे धर्मोपदेश दीजिए।" 272. अथवा श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट आकर कहती है -- "मैं श्रमणों की सामिणी हूँ।" (किन्तु) जैसे अग्नि के पास लाख का घड़ा पिघल जाता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष भी स्त्री के साथ रहने से शिथिलाचारी हो जाते हैं। 273. जैसे अग्नि को छूता हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर नाश को प्राप्त (नष्ट) हो जाता है, इसी तरह स्त्रियों के साथ संवास (संसर्ग) से अनगार पुरुष (भी) शीघ्र ही नष्ट (संयमभ्रष्ट) हो जाते हैं। 274. कई भ्रष्टाचारी पापकर्म करते हैं, किन्तु आचार्य आदि के द्वारा पूछे जाने पर यों कहते हैं कि मैं पापकर्म नहीं करता, किन्तु 'यह स्त्री (बाल्यकाल में) मेरे अंक में सोती थी।' 275. उस मूर्ख साधक की दूसरी मूढ़ता यह है कि वह पुनः-पुनः किये हुए पापकर्म को, 'नहीं किया', कहता है / अतः वह दुगुना पाप करता है / वह जगत् में अपनी पूजा चाहता है, किन्तु असंयम की इच्छा करता है। 276. दिखने में सुन्दर आत्मज्ञानी अनगार को स्त्रियाँ निमंत्रण देती हुई कहती हैं-हे भवसागर से नाता (रक्षा करने वाले) साधो ! आप मेरे यहां से वस्त्र, पात्र, अन्न (आहार) या पान (पेय पदार्थ) स्वीकार (ग्रहण) करें। 277. इस प्रकार के प्रलोभन को साधु, सूअर को फंसाने वाले चावल के दाने के समान समझे। ऐसी स्त्रियों की प्रार्थना पर वह (उनके) घर जाने की इच्छा न करे / (किन्तु) विषय-पाशों से बंधा हुआ मूर्ख साधक पुनः पुनः मोह को प्राप्त हो जाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-स्त्रीसंगरूप उपसर्ग : विविध रूप, दुष्परिणाम एवं फत्तं व्यनिर्देश-प्रस्तुत उद्देशक की 31 सूत्रगात्राओं (सू० गा० 247 से 277 तक) में स्त्रीसंगरूप उपसर्ग के विविध रूपों का परिचय देते हुए शास्त्रकार ने बीच-बीच में स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधक की अवदशा, स्त्रीसंसर्गभ्रष्टता के दुष्परिणामों एवं इस उपसर्ग से बचने के कर्तव्यों का निरूपण भी किया गया है।' 1 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति (भाषानुवाद सहित), भाग 2, पृ० 106 से 147 तक का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org