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________________ 18 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय अनुसार-अन्योन्य-एक दूसरे के उक्त कथन का अनुगामी है। वृत्तिकार ने अन्नउत्त तयाणुयं -पाठान्तर मानकर व्याख्या की है-विपरीत स्वरूप बनाने वाले अन्य अविवेकियो ने जो मिथ्या अर्थ बतलाया है, उसी का अनुगामी (लोकवाद है / ) अणत-जिसका अन्त-निरन्वय नाश नहीं है, अथवा अनन्त यानी परिमाण रहित-निरवधि। इहमेगेसि आहितं-इस लोक में किन्हीं सर्वज्ञापह्नववादियों का यह कथन या मत है / अपरिमाणं विजानाति-क्षेत्र और काल की जिसमें इयत्ता-सीमा नहीं है, ऐसा अपरिमित ज्ञाता अतीन्द्रियदर्शी सम्वत्थ सपरिमाणं इति धीरोऽतिपासति=बुद्धिमान (धीर) (व्यास आदि) सर्वार्थ देशकालिक अर्थ सपरिमाण-सीमित जानता है, यह अतिदर्शन है / अदु- अथवा, अंजु-अवश्य, परियाए --पर्याय में / 16 अहिसा धर्म-निरूपण 84. उरालं जगओ जोयं विपरीयासं पलेति य / सव्वे अक्कंत दुक्खा य अतो सव्वे अहिसिया // 6 // 85. एतं खु णाणिणो सारं जं न हिसति किंचणं / अहिंसा समयं चेव एतावंतं वियाणिया // 10 // 84. (औदारिक त्रस-स्थावर जीव रूप) जगत् का (बाल्य-यौवन-वृद्धत्व आदि) संयोग-अवस्थाविशेष अथवा योग-मन वचन काया का व्यापार (चेष्टाविशेष) उदार-स्थूल है - इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। और वे (जीव) विपर्यय (दूसरे पर्याय) को भी प्राप्त होते हैं तथा सभी प्राणी दुःख से आक्रान्त-पीड़ित हैं, (अथवा सभी प्राणियों को दुःख अकान्त --अप्रिय है, और सुखप्रिय है) अतः सभी प्राणी अहिंस्य–हिंसा करने योग्य नहीं है। 85. विशिष्ट विवेकी पुरुष के लिए यही सार---न्याय संगत निष्कर्ष है कि वह (स्थावर या जंगम) किसी भी जीव की हिंसा न करे / अहिंसा के कारण सब जीवों पर समता रखना और (उपलक्षण से सत्य आदि) इतना ही जानना चाहिए, अथवा अहिंसा का समय (सिद्धान्त या आचार) इतना ही समझना चाहिए। विवेचन- अहिंसा के सिद्धान्त या आचार का निरूपण-- इस गाथा द्वय (84-85) में स्व-समय के सन्दर्भ में अहिंसा के सिद्धान्त एवं आचार का प्रतिपादन किया गया है। लोकवाद के सन्दर्भ में कहा गया था कि उसकी यह मान्यता है कि त्रस या स्थावर, स्त्री या पुरुष, जो इस लोक में जैसा है, अगले लोकों में भी वह वैसा ही होता है, इसलिए कोई श्रमण निर्ग्रन्थ अहिंसादि के आचरण से विरत न हो जाये, इसीलिए ये दोनों गाथाएँ तथा आगे की गाथाएँ शास्त्रकार ने प्रस्तुत की हैं। प्रस्तुत गाथा द्वय से मिलती-जुलती गाथाएँ इसी सूत्र के 12 वें अध्ययन की सूत्रगाथा 505 और 506 में भी हैं। 16 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक-४६-५० (ख) सूयगडंग चूणि ( मूलपाठ टिप्पण) पृ० 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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