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________________ 200 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन- उपसर्गपरिज्ञा कर अपने भरणपोषण के लिए, कहते हैं; (2) बूढ़े पिता, छोटी बहन, तथा सहोदर भाइयों को छोड़ने का अनुरोध, (3) माता-पिता का भरण-पोषण करना लौकिक आचार है, इससे लोक सुधरता है, (4) छोटे-होटे दुध मुंह बच्चे और नवयौवना पत्नी को सँभालने का आग्रह, (5) तुम्हारे जिम्मे का सब काम हम कर लेंगे इस प्रकार कह कर घर चलने का आग्रह, (6) घर जाकर वापस लौट आना, वहाँ तुम्हें स्वेच्छा से काम करने से कोई नहीं रोकेगा (7) तुम्हारे सब कर्ज हमने बराबर बाँटकर चुका दिया है, तथा तुम्हें अब घरबार चलाने एवं व्यापार के लिए हम सोना आदि देंगे। इस प्रकार बहकाना / इस प्रकार के अनुकूल उपसर्ग का 4 प्रकार का प्रभाव-(१) स्वजनों के करुणाजनक वार्तालाप से उनके स्नेह सम्बन्धों में बद्ध साधक घर की ओर चल पड़ता है, (2) वेल द्वारा वृक्ष को बांधने की तरह स्वजन समाधि रहित साधक को बांध लेते हैं, (3) नये पकड़े हुए हाथी की तरह वे उसके पीछे-पोछे चलते हैं, वे उसे अपने से दूर नहीं छोड़ते। (4) समुद्र की तरह गम्भीर एवं दुस्तर इन ज्ञाति-संगों में आसक्त होकर कायर साधक कष्ट पाते हैं। ___ इन उपसर्गों के समय साधक का कर्तव्य-(१) इस उपसर्गों को भली-भांति जान कर छोड़ दे, (2) सभी संग रूप उपसर्ग महास्रवरूप हैं, (3) अनुत्तर निम्रन्थ धर्म का श्रवण-मनन करे, (4) असंयमी जीवन की आकांक्षा न करे, (5) भगवान महावीर ने इन्हें भंवरजाल बताया है, (6) अज्ञानी साधक ही इनमें फँस कर दुःखी होते हैं, ज्ञानी जन इनसे दूर हट जाते हैं। स्वजन संगरूप उपसर्ग के मुख्य सात रूप-प्रथमरूप-साधुधर्म में दीक्षित होते या दीक्षित हुए देखकर स्वजनवर्ग जोर-जोर से रोने लगते है, आँसू बहाते हैं, स्वजनों की आँखों में आँसू देखकर कच्चे साधक का मन पिघल जाता है। जब वह उनके मोहभित वचनों को सुनने के लिए तैयार होता है, तब वे कहते हैं --पुत्र ! हमने बचपन से तुम्हारा पालन-पोषण इसलिए किया था कि बुढ़ापे में तुम हमारा भरण-पाषण करोगे, लकिन तुम तो हमें अधबीच में ही छिटका कर जा रहे हो। अतः चलो, हमारा भरण पोषण करो। तुम्हारे सिवाय हमारा पोषक-रक्षक कौन है ? हमें असहाय छोड़कर क्यों जा रहे हो? दूसरा रूप-पुत्र ! देखो तो सही, तुम्हारे पिता बहुत बूढ़े हैं, इन्हें तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है ! यह तुम्हारी बहन अभी बहुत छोटी है. ये तुम्हारे सहोदर भाई हैं, इनकी ओर भी देखो इन सबको छोड़कर क्यों जा रहे हो ? घर चलो ! तीसरा रूप-बेटा ! माँ-बाप का भरण पोषण करो, इसी से लोक-परलोक सुधरेगा। लौकिक आचारशास्त्र में यह स्पष्ट कहा गया है कि पुत्र अपनी जन्मदात्री मां का तथा गुरुजनों का अवश्य ही पालन करते हैं, तभी वे माता-पिता के उपकारों से किंचित उऋण हो सकते हैं। चौथा रूप-अभी तुम्हारे एक के बाद एक पैदा हुए सुन्दर सलौने मधुर भाषी दुध मुंहे बच्चे हैं। तुम्हारी पत्नी अभी नवयौवना है। तुम्हारे द्वारा परित्यक्त होने पर यह किसी दूसरे पुरुष के साथ 4 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति युक्त भाषानुवाद भा०२ पु०२५ से 37 तक का सार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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