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________________ 172] [सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्धं इसी दृष्टि से इसे ब्रह्म-पद या ब्रह्मवत (मोक्षव्रत) कहा गया है। उसी मोक्ष के लाभार्थी (उदयार्थी) श्रमण भगवान् महावीर हैं, ऐसा मैं कहता हूँ। ८०७-समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमीणा। ते गातिसंजोगमविप्पहाय, प्रायस्स हेउं पकरेंति संगं // 21 // ८०७-(और हे गोशालक ! ) वणिक (गृहस्थ व्यापारी) प्राणिसमूह (भूतग्राम) का प्रारम्भ करते हैं, तथा (द्रव्य-) परिग्रह पर ममत्व भी रखते हैं, एवं वे ज्ञातिजनों के साथ ममत्वयुक्त संयोग (सम्बन्ध) नहीं छोड़ते हुए, प्राय (लाभ) के हेतु दूसरों (संसर्ग न करने योग्य व्यक्तियों) से भी संग करते हैं। ८०८-वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्टा वणिया वयंति / वयं तु कामेसु अज्झोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धा // 22 // ८०८-वणिक धन के अन्वेषक और मैथुन (स्त्रीसम्बन्धी कामभोग) में गाढ़ आसक्त होते हैं, तथा वे भोजन (भोगों) की प्राप्ति के लिए इधर-उधर जाते रहते हैं / अतः हम तो ऐसे वणिकों (व्यापारियों) को काम-भोगों में अत्यधिक प्रासक्त, प्रेम (राग) के रस (स्वाद) में गृद्ध (ग्रस्त) और अनार्य कहते हैं / (भगवान् महावीर इस प्रकार के स्वहानिकर्ता वणिक् नहीं हैं / ) ८०६-प्रारंभयं चेव परिग्गहं च, अविउस्सिया पिस्सिय प्रायदंडा। तेसि च से उदए जं वयासो, चउरंतणंताय दुहाय ह / / 23 / / ८०६-(इसी प्रकार) वणिक् प्रारम्भ और परिग्रह का व्युत्सर्ग (त्याग) नहीं करते, (अपितु) उन्हीं में निरन्तर बधे हुए (प्राश्रित) रहते हैं और (असदाचारप्रवृत्ति करके) प्रात्मा को दण्ड देते रहते हैं। उनका वह उदय (-लाभ), जिससे आप उदय (लाभ) बता रहे हैं, वस्तुत: उदय नहीं है बल्कि वह चातुर्गतिक अनन्त संसार (लाभ) या दुःख (रूप लाभ) के लिए होता है / वह (वास्तव में) उदय (लाभ) है ही नहीं, होता भी नहीं। ८१०–णेगंत णच्चंतिय उदये से, वयंति ते दो विगुणोदयंमि / से उदए सातिमणंतपत्ते तमुद्दयं साहति ताइ णाती॥२४॥ ८१०-पूर्वोक्त सावद्य अनुष्ठान करने से वणिक का जो उदय होता है) वह न तो एकान्तिक (सर्वथा या सार्वत्रिक) है और न आत्यन्तिक (सार्वकालिक)। विद्वान् लोग कहते हैं कि जो उदय इन दोनों गुणों (एकान्तिक एवं प्रात्यन्तिक सुखरूप गुणों से रहित है, उसमें कोई गुण (लाभ या विशेषता) नहीं है। किन्तु उनको (भगवान् महावीर को) जो उदय= लाभ (धर्मोपदेश से प्राप्त निर्जरारूप प्राप्त है, वह आदि और अनन्त है। (ऐसे उदय को प्राप्त अासन्न भव्यों के) त्राता (अथवा तायी = मोक्षगामी) एवं ज्ञातवंशीय या समस्त वस्तुजात के ज्ञाता भगवान् महावीर इसी (पूर्वोक्त) उदय केवलज्ञानरूप या धर्मदेशना से प्राप्त निर्जरारूप लाभ) का दूसरों को उपदेश करते हैं, या इसकी प्रशंसा करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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