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________________ आर्द्रकीय : छठा अध्ययन : सूत्र 811] [173 811- अहिसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे ठितं कम्मविवेगहेउं / तमायदंडेहि समायरंता, श्रबोहिए ते पडिरूवमेयं // 25 // ८११–भगवान् प्राणियों की हिंसा से सर्वथा रहित हैं, तथा समस्त प्राणियों पर अनुकम्पा (दया) करते हैं / वे धर्म (शुद्ध-मात्मधर्म) में सदैव स्थित रहते हैं / ऐसे कर्मविवेक (कर्म-निर्जरा) के कारणभूत वीतराग सर्वज्ञ महापुरुष को, आप जैसे प्रात्मा को दण्ड देने वाले व्यक्ति ही वणिक के सदृश कहते हैं / यह कार्य आपके (तुम्हारे) अज्ञान के अनुरूप ही है। विवेचन–गोशालक द्वारा प्रदत्त वणिक् को उपमा का पाक द्वारा प्रतिवाद-प्रस्तुत सात सूत्रगाथाओं (805 से 811 तक) में से प्रथम गाथा में गोशालक द्वारा भगवान् को दी गई उदयार्थी वणिक की उपमा अंकित है, शेष छह गाथाओं में आद्रकमुनि द्वारा युक्तिपूर्वक उसका प्रतिवाद प्रस्तुत किया गया है। गोशालक का आक्षेप : श्रमण महावीर लाभार्थी वणिक तुल्य-जैसे लाभार्थी वणिक् अपना माल लेकर परदेश में जाता है, वहाँ लाभ के निमित्त महाजनों से सम्पर्क करता है, वैसे ही महावीर भी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा तथा आहारादि के लाभ के लिए विभिन्न देशों में जाते हैं, वहाँ राजा आदि बड़े-बड़े लोगों से सम्पर्क करते हैं / अतः वे वणिक् तुल्य हैं / प्राईक मुनि द्वारा सयुक्तिक प्रतिवाद--(१) लाभार्थी वणिक् के साथ भ. महावीर की एकदेशीय (अांशिक) तुल्यता तो संगत है, क्योंकि भ. महावीर भी जहाँ आत्मिक उपकारादि लाभ देखते हैं, वहाँ उपदेश करते हैं, अन्यथा नहीं। (3) किन्तु लाभार्थी वणिक् के साथ भ. महावीर की सम्पूर्ण तुल्यता निम्नोक्त कारणों से सर्वथा असंगत और अज्ञानमूलक है-(अ) भ. महावीर सर्वज्ञ हैं, वणिक् अल्पज्ञ, सर्वज्ञ होने से भगवान् सर्वसावद्यकार्यों से रहित हैं, इसी कारण वे नये कर्म बन्धन नहीं करते, पर्वबद्ध (भवोपनाही) कर्मों की निर्जरा या क्षय करते हैं, तथा कर्मोपार्जन की कूबुद्धि का सर्वथा त्याग करके वे मोक्ष की ओर अग्रसर होते जाते हैं, इस सिद्धान्त का वे प्रतिपादन भी करते हैं। इस दष्टि से भगवान् मोक्षोदयार्थी-मुक्तिलाभार्थी मोक्षवती अवश्य हैं, जबकि अल्पज्ञ वणिक न तो सावद्यकार्यो से रहित होते हैं, न ही नया कर्मबन्धन रोकते हैं, न पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय के लिए प्रयास करते हैं, इस दृष्टि से वणिकों का मुख मोक्ष की ओर नहीं है, न वे इस प्रकार से मोक्षलाभ कर सकते हैं। (आ) वणिक व्यापार, गृहकार्य आदि में प्रारम्भ करके अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं, परिग्रह पर ममत्व रखते हैं, धन एवं स्वार्थ के लिए स्वजनों-परिजनों के साथ आसक्तिमय संसर्ग रखते हैं, भ मटावीर निरारम्भी एवं निष्परिग्रही हैं, वे किसी के साथ किसी प्रकार का आसक्तिसंयोग नहीं रखते, वे अप्रतिबद्धविहारी हैं। सिर्फ धर्मवद्धि के लिए उपदेश देते हैं। अतः वणिक के साथ भगवान् का सादृश्य बताना सर्वथा विरुद्ध है। (इ) वणिक् एकमात्र धन के अभिलाषी, कामासक्त रहते हैं एवं भोजन या भोगों की प्राप्ति के लिए भटकते हैं / इसलिए कामभोग, रागद्वेष, पापकर्म, एवं कंचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी मोक्षलाभार्थी भगवान महावीर ऐसे रागलिप्त, काममढ़ एवं अनार्य वणिकों के सदृश कैसे हो सकते हैं ? (ई) वरिपक सावद्य प्रारम्भ और परिग्रह को सर्वथा छोड़ नहीं सकते, इस कारण आत्मा को कर्मबन्धन से दण्डित करते रहते हैं। इससे अनन्तकाल तक चतर्गतिपरिभ्रमण का लाभ होता है, जो वास्तव में अात्महानिकारक होने से लाभ ही नहीं है, जबकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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