SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 328 सूत्रकृताग-पाठ अध्ययन- महावीरस्तव उपस्थित-उद्यत रहे। 'आरं परं (पारं) च' आरं= इहलोक अथवा मनुष्यलोक, पारं (पर)=परलोक या नारकादिलोक / चपि.कारस मत पाटान्तर है-परं परं च' अर्थ प्रायः समान है।" फलश्रति-- 380. सोरचा य धम्म अरहंतभासियं, समाहितं अट्ठपोवसुद्ध। तं सद्दहता य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति // 26 // त्ति बेमि। // महावीरस्थवो छठें अज्मयणं सम्मत्त / / 380. श्री अरिहन्तदेव द्वारा भाषित, सम्यक रूप से उक्त युक्तियों और हेतुओं से अथवा अर्थों और पदों से शुद्ध (निर्दोष) धर्म को सुनकर उस पर श्रद्धा (श्रद्धापूर्वक सम्यक् आचरण) करने वाले व्यक्ति आयुष्य (कर्म) से रहित-मुक्त हो जाएंगे, अथवा इन्द्रों की तरह देवों का आधिपत्य प्राप्त करेंगे। -यह मैं कहता हूँ। विवेचन-फलश्रुति-प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार इस अन्तिम गाथा में भ० महावीर द्वारा प्ररूपित श्रुत-चारित्ररूप धर्म का श्रवण, श्रद्धान एवं आचरण करने वाले साधकों को उसकी फलश्रति बताते हैं-सोच्वा य धम्म ....."आगमिस्संति / // महावीरस्तव षष्ठ अध्ययन समाप्त // 10 14 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 151 (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy