________________ 136 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रत्याख्यानक्रियारहित सदैव पापकर्मबन्धकर्ता : क्यों और कैसे ? ७४८–तत्थ चोदए पण्णवर्ग एवं वदासि-असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं कारणं पावएणं अहणंतस्स प्रमणक्खस्स अवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे नो कज्जति / कस्स णं तं हेउं ? चोदग एवं ब्रवीति—अण्णयरेणं मणेणं पावएणं मणवत्तिए पावे कम्मे कज्जति, अण्णयरीए वतीए पावियाए वइवत्तिए पावे कम्मे कज्जति, प्रणयरेणं काएणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे कज्जइहणंतस्स समणक्खस्स सवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सविणमवि पासो एवं गुणंजातीयस्स पावे कम्मे कज्जति / पुणरधि चोदग एवं ब्रवीति-तत्थ णं जे ते एवमाहंसु 'असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स प्रवियारमण-वयस-काय-बक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे कज्जति', जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु / ७४८-इस विषय में प्रेरक (प्रश्नकर्ता) ने प्ररूपक (उदेशक) से इस प्रकार कहा—पापयुक्त मन न होने पर, पापयुक्त वचन न होने पर, तथा पापयुक्त काया न होने पर जो प्राणियों की हिसा नहीं करता, जो अमनस्क है, जिसका मन, वचन, शरीर और वाक्य हिंसादि पापकर्म के विचार से रहित है, जो पापकर्म करने का स्वप्न भी नहीं देखता-अर्थात् जो अव्यक्तविज्ञान (चेतना) युक्त है, ऐसे जीव के पापकर्म का बन्ध नहीं होता। किस कारण से उसे पापकर्म का बन्ध नहीं होता? प्रेरक (प्रश्नकर्ता स्वयं) इस प्रकार कहता है किसी का मन पापयुक्त होने पर ही मानसिक (मन-सम्बन्धी) पापकर्म किया जाता है, तथा पापयुक्त वचन होने पर ही वाचिक (वचन द्वारा) पापकर्म किया जाता है, एवं पापयुक्त शरीर होने पर ही कायिक (काया द्वारा) पापकर्म किया जाता है / जो प्राणी हिंसा करता है, हिंसायुक्त मनोव्यापार से युक्त है, जो जान-बूझ कर (विचारपूर्वक) मन, वचन, काया और वाक्य का प्रयोग करता है, जो स्पष्ट (व्यक्त) विज्ञानयुक्त (वैसा स्वप्नद्रष्टा) भी है। इस प्रकार के गुणों (विशेषताओं) से युक्त जीव पापकर्म करता (बांधता) है। पुनः प्रेरक (प्रश्नकर्ता) इस प्रकार कहता है-'इस विषय में जो लोग ऐसा कहते हैं कि मन पापयुक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा शरीर भी पापयुक्त न हो, किसी प्राणी का घात न करता हो, अमनस्क हो, मन, वचन, काया और वाक्य के द्वारा भी (पाप) विचार से रहित हो, स्वप्न में भी (पाप) न देखता हो, यानी अव्यक्तविज्ञान वाला हो, तो भी (वह) पापकर्म करता है।" जो इस प्रकार कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं।" ७४६–तत्थ पण्णवगे चोदगं एवं वदासी-जं मए पुवुत्तं 'असंतएणं मणेणं पावएणं असंतियाए वतीए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणंतस्स अमणक्खस्स अवियारमण-वयस-काय-वक्कस्स सुविणमवि अपस्सतो पावे कम्मे कज्जति' तं सम्म। कस्स णं तं हेडं? प्राचार्य पाह-तत्थ खलु भगवता छज्जीवनिकाया हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया / इच्चेतेहि छहिं जीवनिकाहिं पाया अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे निच्चं पसढविनोवातचित्तदंडे, तंजहा—पाणाइवाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org