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________________ प्रत्याख्यान-क्रिया : चतुर्थ अध्ययन : सूत्र 749] [137 जाव परिग्गहे, कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले / प्राचार्य प्राह-तत्थ खलु भगवता वहए दिढते पण्णत्त, से जहानामए वहए सिया गाहावतिस्स वा गाहावतिपुत्तस्स वा रणो वा रायपुरिसस्स वा खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामि पहारेमाणे, से कि नु हु नाम से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रपणो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामि पहारेमाणे दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविमोवातचित्तदंडे भवति ? एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरे चोयए-हंता भवति / __प्राचार्य प्राह--जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स तस्स वा गाहावतिपुत्तस्स तस्स वा रण्णो तस्स वा रायपुरिसस्स खणं णिदाए पविसिस्सामि खणं लद्ध ण वहिस्सामीति पहारेमाणे दिया वा राओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविओवातचित्तदंडे एवामेव बाले वि सव्वेसि पाणाणं जाव सत्ताणं पिया वा रातो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढविप्रोवातचित्तदंडे, तं० पाणाइवाते जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं खलु भगवता अक्खाए अस्संजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते यावि भवति, से बाले अवियारमण-बयस-काय-वक्के सुविणमवि ण पस्सति, पावे य से कम्मे कज्जति / जहा से वहए तस्स वा गाहावतिस्स जाव तस्स वा रायपुरिसस्स पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा राम्रो वा सुत्ते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते निच्चं पसढवियोवातचित्तदंडे भवति, एवामेव बाले सब्वेसि पाणाणं जाव सब्वेसि सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्त समादाए दिया वा रातो वा सुते वा जागरमाणे वा अमित्तभूते मिच्छासंठिते जाव चित्तदंडे भवइ / 746 - इस सम्बन्ध में प्रज्ञापक (उत्तरदाता) ने प्रेरक (प्रश्नकार) से इस प्रकार कहा-जो मैंने पहले कहा था कि मन पाप युक्त न हो, वचन भी पापयुक्त न हो, तथा काया भी पापयुक्त न हो, वह किसी प्राणी की हिंसा भी न करता हो, मनोविकल हो, चाहे वह मन, वचन, काया और वाक्य का समझ-बूझकर (विचारपूर्वक) प्रयोग न करता हो, और वैसा (पापकारी) स्वप्न भी न देखता हो, अर्थात् अव्यक्त विज्ञान (चेतना) वाला हो, ऐसा जीव भी पापकर्म करता (बांधता) है, वही सत्य है / ऐसे कथन के पीछे कारण क्या है ? आचार्य (प्रज्ञापक) ने कहा-इस विषय में श्री तीर्थकर भगवान् ने षट्जीवनिकाय कर्मबन्ध के हेतु के रूप में बताए हैं। वे षड्जीवनिकाय पृथ्वीकाय से लेकर उसकाय पर्यन्त हैं। इन छह प्रकार के जीवनिकाय के जीवों की हिंसा से उत्पन्न पाप को जिस प्रात्मा ने (तपश्चर्या आदि करके) नष्ट (प्रतिहत) नहीं किया, तथा भावी पाप को प्रत्याख्यान के द्वारा रोका नहीं, बल्कि सदैव निष्ठुरतापूर्वक प्राणियों की घात में चित्त लगाए रखता है, और उन्हें दण्ड देता है तथा प्राणातिपात से लेकर परिग्रह-पर्यन्त तथा क्रोध से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक के पापस्थानों से निवृत्त नहीं होता है, (वह चाहे किसी भी अवस्था में हो, अवश्यमेव पापकर्म का बन्ध करता है, यह सत्य है।) (इस सम्बन्ध में) प्राचार्य (प्ररूपक) पुनः कहते हैं इसके विषय में भगवान महावीर ने वधक (हत्यारे) का दृष्टान्त बताया है-कल्पना कीजिए-कोई हत्यारा हो, वह गृहपति की अथवा 1. नागार्जुनीय सम्मत पाठ-'अपणो अक्खणयाए तस्स वा पुरिसस्स छिद्द अलभमाणे णो बहेइ,....मे से पुरिसे अवसं वहेयध्वे भविस्सइ एवं मणो पहारेमाणे' चूणि०-सूत्रकृ. वृत्ति पत्रांक 364 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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