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________________ 148 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अनाचार के निषेधात्मक विवेकसूत्र ७५५–अणादीयं परिण्णाय, प्रणवदग्गे ति वा पुणो / ____सासतमसासते यावि, इति दिद्धि न घारए // 2 // ७५६–एतेहिं दोहि ठाणेहि, धवहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणए // 3 // ७५५-७५६–'यह (चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवं धर्माधर्मादिषद्रव्यरूप) लोक अनादि (आदिरहित) और अनन्त है, यह जान कर विवेकी पुरुष यह लोक एकान्त नित्य (शाश्वत) है, अथवा एकान्त अनित्य (अशाश्वत) है; इस प्रकार को दृष्टि, एकान्त (प्राग्रहमयी बुद्धि) न रखे / ___ इन दोनों (एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य) पक्षों (स्थानों) से व्यवहार (शास्त्रीय या लौकिक व्यवहार) चल नहीं सकता। अतः इन दोनों एकान्त पक्षों के प्राश्रय को अनाचार जानना चाहिए। ७५७-समुच्छिजिहिंति सत्थारो, सम्वे पाणा प्रणेलिसा। गंठीगा वा भविस्संति, सासयं ति च णो वदे // 4 // ७५८-~-एएहि दोहि ठार्गाह, ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहि ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणई // 5 // ७५७-७५८-प्रशास्ता (शासनप्रवर्तक तीर्थंकर तथा उनके शासनानुगामी सभी भव्य जीव) (एकदिन) भवोच्छेद (कालक्रम से मोक्षप्राप्ति) कर लेंगे। अथवा सभी जीव परस्पर विसदृश (एक समान नहीं) हैं, या सभी जीव कर्मग्रन्थि से बद्ध (ग्रन्थिक) रहेंगे, अथवा सभी जीव शाश्वत (सदा स्थायी एकरूप) रहेंगे, अथवा तीर्थंकर, सदैव शाश्वत (स्थायी) रहेंगे, इत्यादि एकान्त वचन नहीं बोलने चाहिए। क्योंकि इन दोनों (एकान्तमय) पक्षों से (शास्त्रीय या लौकिक) व्यवहार नहीं होता / अतः इन दोनों एकान्तपक्षों के ग्रहण को अनाचार समझना चाहिए। ७५६-जे केति खुड्डगा पाणा, अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेरं ति, असरिसं ति य णो वदे // 6 // ७६०–एतेहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जती। एतेहिं दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए // 7 // ७५६-७६०-(इस संसार में) जो (एकेन्द्रिय आदि) क्षुद्र (छोटे) प्राणी हैं, अथवा जो महाकाय (हाथी, ऊँट, मनुष्य आदि) प्राणी हैं, इन दोनों प्रकार के प्राणियों (की हिंसा से, दोनों) के साथ समान ही वैर होता है, अथवा समान वैर नहीं होता; ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इन दोनों ('समान वैर होता है या समान वैर नहीं होता';) एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता / अतः इन दोनों एकान्तवचनों को अनाचार जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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