________________ 260 सूत्रकृतांग- चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिना तरीके से फंसाने हेतु प्रार्थना करती हैं-संसारसागर से नाता ! मुनिवर ! वस्त्र, पात्र, अन्न-पान आदि जिस किसी वस्तु की आपको आवश्यकता हो, आपको और कहीं पधारने की आवश्यकता नहीं। आप मेरे यहाँ पधारें। मैं आपको सब कुछ दूंगी। यदि साधु उसके वाग्जाल में फंसकर उसकी प्रार्थना स्वीकार करके बार-बार उसके यहाँ जानेआने लगता है और वस्त्रादि स्वीकार कर लेता है तो निःसंदेह वह एक दिन उस स्त्री के मोहजाल में फंस सकता है / इसीलिए शास्त्रकार २७६वीं गाथा द्वारा इसे स्त्रीसंगरूप उपसर्ग बताते हुए कहते हैंसंलोकणिज्जमणगारं..."पाणगं परिग्गाहे / ये ही कुछ निदर्शन हैं, स्त्रीजन्य उपसर्ग के, जो इस उद्देशक में बताये गए हैं / इनके सिवाय और भी अनेकों रूप हो सकते हैं, जिनसे चारित्रनिष्ठ साधु को प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिए। स्त्रीजन्य उपसर्गों से सावधान रहने की प्रेरणाएं-इस समग्र उद्देशक में बीच-बीच में स्त्रीजन्य उपसर्ग के पर्वोक्त विविध रूपों से सावधान रहने और इस उपसर्ग पर विजय पाने की विभिन्न प्रेरणाएँ शास्त्रकार ने दी हैं / वे प्रेरणाएँ इस प्रकार हैं प्रथम प्रेरणा-शास्त्रकार ने इस उपसर्ग से बचने के लिए साधु को सर्वप्रथम प्रेरणा दी है-साधुदीक्षा ग्रहण करते समय की हुई प्रतिज्ञा का स्मरण कराकर / प्रतिज्ञा स्मरण कराने का उद्देश्य यह है कि साधु अपनी गृहीत प्रतिज्ञा को स्मरण करके स्त्रीजन्य उपसर्ग से अपने आपको बचाए। इसीलिए 'जे भातरं पितर...."आरतमेहुणो विवित्त सी' इस गाथा द्वारा शास्त्रकार साधु को अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण कराते हुए ‘उवायं पिताओ जागिसु जह लिस्संति भिक्खुणो एगे' इस गाथाधं द्वारा स्त्रीजन्य उपसर्ग से पराजित होने से बचने की प्रेरणा देते हैं। द्वितीय प्रेरणा-स्त्रियों द्वारा अंग-प्रदर्शन, हावभाव, निकट आकर किसी बहाने से बैठने आदि अथवा भावभक्तिपूर्वक शय्या, आसन आदि पर बैठने आदि के नाना प्रकार के प्रलोभनों, कामोत्तेजक बातों से साध सावधान रहे / विवेकी साधु इन सब बातों को व कामजाल में फंसाने के नाना प्रकार के बंधन (पाश बन्धन) समझे और इन लुभावने फंदों से अपने आपको बचाए / शास्त्रकार इनसे सावधान रहने की प्रेरणा देते हुए २५०वीं सूत्रगाथा में कहते हैं-एताणि चेव से जाणे, पासाणि विरूष रूयाणि / तृतीय प्रेरणा–प्रायः साधु दृष्टि राग के कारण शीलभ्रष्ट होता है, अगर वह अपनी दृष्टि पर संयम रखे, स्त्री के अंगों पर चलाकर अपनी नजर न डाले, उसकी दृष्टि से दृष्टि न मिलावे, उसके द्वारा कटाक्षपात आदि किये जाने पर स्वयं उसकी ओर से दृष्टि हटा ले। दशवकालिक सूत्र में बताया गया है कि 'साधु स्त्री का भित्ती पर अंकित चित्र भी न देखे, शृंगारादि से विभूषित नारी को भी न देखे, कदाचित् उस पर दृष्टि पड़ जाए तो जैसे सूर्य की ओर देखते ही दृष्टि हटा ली जाती है, उसी तरह उस 2 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 104 से 113 तक में से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org