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________________ पौण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 663 ] [ 31 ईश्वरकारणवाद का मन्तव्य-प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में स्पष्ट कर दिया गया है, पाठक वही देखें / प्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप- भी प्रथम श्रु तस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में बता दिया गया है। संक्षेप में उनका मन्तव्य यह है कि सारे विश्व में एक ही प्रात्मा है, वही प्रत्येक प्राणी में स्थित है। वह एक होता हुआ भी विभिन्न जलपात्रों के जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र के समान प्रत्येक जीव में भिन्नभिन्न प्रतीत होता है / जैसे मिट्टी से बने हुए सभी पात्र मृण्मय कहलाते हैं, तन्तु द्वारा बने हुए सभी वस्त्र तन्तुमय कहलाते हैं, इसी प्रकार समस्त विश्व प्रात्मा द्वारा निर्मित होने से प्रात्ममय है। इस चतु:सूत्री में निम्नोक्त तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) ईश्वरकारणवादी अथवा आत्माद्वैतवादी पुरुष का परिचय, (2) ईश्वर कारणवाद या प्रात्माद्वैतवाद का स्वरूप (3) ईश्वर कारणवाद या प्रात्माहतवाद को सिद्ध करने के लिए प्रतिपादित 7 उपमाएं (क) शरीर में उत्पन्न फोड़े की तरह, (ख) शरीरोत्पन्न अरतिवत् (ग) पृथ्वी से उत्पन्न वल्मीकवत् (घ) पृथ्वीसमुत्पन्न वृक्षवत् (ङ) पृथ्वी से निर्मित पुष्करिणीवत्, (च) जल से उत्पन्न पुष्करवत् (छ) जल से उत्पन्न बुदबूदवत / (4) ईश्वर कर्तत्ववाद विरोधी श्रमण निर्ग्रन्थों का द्वादशांगी गणिपिटक ईश्वरकृत न होने से मिथ्या होने का प्राक्षेप और स्ववाद की सत्यता का प्रतिपादन, (5) ईश्वरकारणवादी या आत्माद्वैतवादी पूर्वसूत्रोक्तवत् क्रिया-प्रक्रिया से लेकर नरकादि गतियों को नहीं मानते। (6) अपने मिथ्यावाद के आश्रय से पापकर्म एवं कामभोगों का नि:संकोच सेवन, (7) अनार्य एवं विप्रतिपन्न ईश्वरकारणवादियों या आत्माद्वैतवादियों की दुर्दशा का पूर्ववत् वर्णन / आत्माद्वंतवाद भी युक्तिविरुद्ध- इस जगत् में जब एक आत्मा के सिवाय दूसरी वस्तु है ही नहीं तब फिर मोक्ष के लिए प्रयत्न, शास्त्राध्ययन प्रादि सब बातें व्यर्थ ही सिद्ध होंगी, सारे जगत् के जीवों का एक आत्मा मानने पर सुखी-दुखी, पापी-पुण्यात्मा आदि प्रत्यक्षदृश्यमान् विचित्रताएं सिद्ध नहीं होंगी, एक के पाप से सभी पापी और एक की मुक्ति से सबकी मुक्ति माननी पड़ेगी, जो कि प्रात्माद्वैतवादी को अभीष्ट नहीं है।' चतुर्थ पुरुष : नियतिवादी : स्वरूप और विश्लेषण 663-- प्रहावरे चउत्थे पुरिसजाते णियतिवातिए ति पाहिज्जति / इह खलु पाईणं वा 4 तहेब जाव सेणावतिपुत्ता वा, तेसि च गं एगतिए सड्डी भवति, कामं तं समणा य माहणा य संपहारिसु गमणाए जाव जहा मे एस धम्मे सुअक्खाते सुपण्णत्ते भवति / ६६३-तीन पुरुषों का वर्णन करने के पश्चात् अब नियतिवादी नामक चौथे पुरुष का वर्णन किया जाता है / इस मनुष्यलोक में पूर्वादि दिशानों के वर्णन से लेकर राजा और राजसभा के सभासद सेनापतिपुत्र तक का वर्णन प्रथम पुरुषोक्त पाठ के समान जानना चाहिए / पूर्वोक्त राजा और उसके सभासदों में से कोई पुरुष धर्मश्रद्धालु होता है। उसे धर्मश्रद्धालु जान कर (धर्मोपदेशार्थ) उसके निकट जाने का श्रमण और ब्राह्मण निश्चय करते हैं / यावत् वे उसके पास जाकर कहते हैं"मैं अापको पूर्वपुरुषकथित और सुप्रज्ञप्त (सत्य) धर्म का उपदेश करता हूं (उसे पाप ध्यान से सुनें / )" 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पत्रांक 284 से 287 तक का सारांश / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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