________________ [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ६६४-इह खलु दुवे पुरिसा भवंति–एगे पुरिसे किरियमाइक्खति, एगे पुरिस णोकिरियमाइक्खति / जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे गोकिरियमाइक्खइ, दो वि ते पुरिसा तुल्ला एगट्ठा कारण मावन्ना। बाले पुण एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने, तं जहाजोऽहमंसी दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पिड्डामि वा परितप्पामि वा अहं तमकासी, परो वा जं दुक्खति वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पिडड्ड वा परितप्पइ वा परो एतमकासि, एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने / मेधावी पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने-अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जरामि वा तिप्पामि वा पिडड्डामि वा परितप्पामि वा, णो अहमेतमकासि परो वा जं दुक्खति वा जाव परितप्पति वा नो परो एयमकासि / एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विष्पडिवेदेति कारणमावन्ने। 664- इस लोक में (या दार्शनिक जगत् में) दो प्रकार के पुरुष होते हैं—एक पुरुष क्रिया का कथन करता है, (जबकि) दूसरा क्रिया का कथन नहीं करता, (क्रिया का निषेध करता है)। जो पुरुष क्रिया का कथन करता है और जो पुरुष क्रिया का निषेध करता है, वे दोनों हो नियति के अधीन होने से समान हैं, तथा वे दोनों एक ही अर्थ वाले और एक ही कारण (नियतिवाद) को प्राप्त है।। ये दोनों ही अज्ञानी (बाल) हैं, अपने सुख और दुःख के कारणभूत काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह समझते हैं कि मैं जो कुछ भी दुःख पा रहा हूं, शोक (चिन्ता) कर रहा हूं, दुःख से आत्मनिन्दा (पश्चात्ताप) कर रहा हूं, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूं, पीड़ा पा रहा हूं, या संतप्त हो रहा हूं, वह सब मेरे ही किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं, तथा दूसरा जो दुःख पाता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, अथवा पीड़ित होता है या संतप्त होता है, वह सब उसके द्वारा किये हुए कर्म (कर्मफल) हैं / इस कारण वह अज्ञजीव (काल, कर्म, ईश्वर आदि को सुख-दुःख का कारण मानता हमा) स्वनिमित्तक (स्वकृत) तथा परनिमित्तक (परकृत) सुखदुः खादि को अपने तथा दूसरे के द्वारा कृत कर्मफल समझता है. परन्त एकमात्र नियति का ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला पुरुष तो यह समझता है कि 'मैं जो कुछ दुःख भोगता हूं, शोकमग्न होता हूं या संतप्त होता हूं, वे सब मेरे किये हुए कर्म (कर्मफल) नहीं हैं, तथा दूसरा पुरुष जो दुःख पाता है, शोक आदि से संतप्त—पीड़ित होता है, वह भी उसके द्वारा कृतकर्मों का फल नहीं है, (अपितु यह सब नियति का प्रभाव है)। इस प्रकार वह बुद्धिमान् पुरुष अपने या दूसरे के निमित्त से प्राप्त हुए दुःख आदि को यों मानता है कि ये सब नियतिकृत (नियति के कारण से हुए हैं, किसी दूसरे के कारण से नहीं। 665-- से बेमि-पाईणं वा 4 जे तसथावरा पाणा ते एवं संघायमावति , ते एवं परियायमावज्जति, ते एवं विवेगमावज्जति, ते एवं विहाणमागच्छंति, ते एवं संगइ यति / उहाए णो एयं विप्पडिवेति, तं जहा-किरिया ति वा जाव णिरए ति वा अणिरए ति वा / एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाइं कामभोगाई समारभंति भोयणाए। एवामेव ते प्रणारिया विप्पडिवण्णा तं सद्दहमाणा जाव इति ते णो हवाए णो पाराए, अंतरा कामभोगेसु विसम्णा / चउत्थे पुरिसजाते णियइवाइए त्ति पाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org