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________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरक विभक्ति सुस्थिरता आदि सन्दर्भ में होने से उपयुक्त अर्थ ही ठीक है। अभिजु जिया रुद्द असाहुकम्मा=वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं- (1) रौद्रकर्मणि अभियुज्य- व्यापार्य, यदि वा रौद्र सत्त्वोपघातकार्य, अभियुज्य --स्मारयित्वा / अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में दुष्कर्म किये हैं, उन्हें रौद्र-हिंसादि भयंकर कार्य में प्रेरित करके या नियुक्त करके अथवा रौद्र = (पूर्वजन्मकृत) प्राणिघात वगैरह कर्म का स्मरण कराकर / चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-रोद्ध असाधु कम्मा (म्मी)--अर्थ किये हैं--रौद्रादीनि कर्माणि असाधूनि येषां ते'- अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में रौद्र-भयंकर खराब कर्म (पाप) किये हैं उन्हें / हत्यिवहं वहति वृत्तिकार के अनुसार जैसे हाथी पर चढ़कर उससे भार-वहन कराते हैं, वैसे ही नारकों से भी सवारी ढोने का काम लेते हैं। अथवा जैसे हाथी भारी भार वहन करता है, वैसे ही नारक से भी भारी भारवहन कराते हैं। चर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-हत्थितुल्ल वहति नारक हाथी की तरह भार ढोते हैं, अथवा नारकों को हस्तिरूप (वैक्रिय शक्ति से) बनाकर उनसे भारवहन कराते हैं। 'आवस्स विज्झंति ककाणओ से'-अत्यन्त प करके उनके मर्मस्थान को नोंकदारशस्त्र से बांध देते हैं / या चाबुक आदि के प्रहार से उन्हें सताते हैं / चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'आम विधंति फिकाणतो से ---अर्थ किया गया हैं-नारक पर चढ़कर, क्यों नहीं ढोता ? यो रोषपूर्वक कहकर उसको कृकाटिका=गर्दन नोकदार शस्त्र से बींध देते हैं / कोट्ट बलि कति =वृत्तिकार के अनुसार-कूटकर टुकड़े-टुकड़े करके बलि कर देते हैं, या नगरवलि की तरह इधर-उधर फेंक देते हैं। अथवा कोट्रबलि यानी नगरबलि कर देते हैं। लगभग यही अर्थ चूणिकारसम्मत पाठान्तर 'कुट (कोट्ट) बलि करेंति' के अनुसार हैं / परं सहस्साण मुत्तगाणं सहस्रसंख्यक मुहुर्त से पर-प्रकृष्ट (अधिक) काल तक ! चूणिकार --परं सहस्राणामिति परं सहस्रेभ्योऽनेकानि सहस्राणीत्यर्थः / अर्थात् - हजारों से पर यानी अनेक सहस्त्र महत्तों तक-लम्बे समय तक / सयायकोवा-वत्तिकार के अनसारसदावकोपाः-नित्यकुपित / चूर्णिकार के अनुसार-भक्षण करके सदा अतृप्त रहते हैं, अथवा सदा अकोप्य-अनिवार्य या अप्रतिषेध्य अर्थात् सदैव निवारण नहीं किये जा सकते। नरक में सतत दुःख प्राप्त और उससे बचने के उपाय 348 एयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीय / ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणहोति दुक्खं // 22 // 346 जं जारिसं पुध्वमकासि कम्म, तहेव आगच्छति संपराए / एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता, वेदेति दुक्खी तमणंतदुक्खं // 23 // 350 एताणि सोच्चा गरगाणि धीरे, न हिंसते कंचण सव्वलोए। एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोगस्स वसं न गच्छे // 24 // 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 135 से 136 तक के अनुसार (ख) सूत्रकृतांग चूंणि (मू० पा० टि०) पृ० 58 से 62 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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