________________ गाथा 567 से 606 435 और द्वष से रहित / 'समोहमट्ठ' के बदले वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है-'समीहिय?"; अर्थात-सम+ ईहित+ अभीष्ट= मोक्ष रूप अर्थ को / 'सुद्धण उबेतिमोक्ख' के बदले पाठान्तर है-'सद्ध न उवेतिमार'तप, संयम आदि से आत्म से आत्मा शुद्ध होने पर या शद्ध मार्ग का आश्रय लेने पर साधक मार अर्थात संसार को अथवा मृत्यु को नहीं प्राप्त करता। गुरुकुलवासी साधुद्वारा भाषा-प्रयोग के विधि-निषेध सूत्र 567 संखाय धम्भं च वियागरेंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवति / ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरंति / / 18 / / 568 नो छादते नो वि य लसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च / ण यावि पण्णे परिहास कुज्जा, ण याऽऽसिसावाद वियागरेज्जा // 1 // 566 भूताभिसंकाए दुगुंछमाणो, ण णिवहे मंतपदेण गोत्तं / ण किंचि मिच्छे मणुओ पयासु, असाहुधम्माणि ण संवदेज्जा // 20 // 600 हास पि णो संधये पावधम्मं, ओए तहिनं फरसं वियाणे / नो तुच्छए नो व विकंथतिज्जा, अणाइले या अकसाइ भिक्खू // 21 // 601 संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवादं च वियागरेज्जा / भासादुगं धम्म समुट्ठितेहिं, वियागरेज्जा समया सुपण्णे // 22 // 602 अणुगच्छमाणे वितहं भिजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसेणं / ण कत्थतो भास विहिसएज्जा, निरुद्धगं वा वि न दोहएज्जा // 23 // 603 समालवेज्जा पडिपुण्णमासी, निसामिया समिया अट्ठदंसी। आणाए सुद्ध वयणं भिउंजे, भिसंधए पावविवेग भिक्खू // 24 // 604 अहाबुइयाइं सुसिक्खएज्जा, जएज्ज या णातिवेलं वदेज्जा / से दिट्ठिम दिट्ठि ण लूसएज्जा, से जाणति भासिउं तं समाहिं / / 25 / / 6.5 अलसए णो पच्छण्णभासो, णो सुत्तमत्थं च करेज्ज ताई। सत्थारभत्ती अणुवीति वायं, सुयं च सम्नं पडिवातएज्जा / / 26 / / 6 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 245 से 247 तक (ख) सूयगडंग चूणि (मु० पा० टिप्पण) पृ० 107-108 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org