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________________ नालन्दकीय : सप्तम अध्ययन : सूत्र 845] [187 844 - उस लेप गाथापति की वहीं शेषद्रव्या नाम की एक उदक शाला थी, जो राजगृह की बाहिरिका नालन्दा के बाहर उत्तरपूर्व-दिशा में स्थित थी। वह उदकशाला (प्याऊ) अनेक प्रकार के सैकड़ों खंभों पर टिकी हुई, मनोरम एवं अतीव सुन्दर थी। उस शेषद्रव्या नामक उदकशाला के उत्तरपूर्व दिग्विभाग (ईशानकोण) में हस्तियाम नाम का एक वनखण्ड था। वह वनखण्ड (सर्वत्र हराभरा होने से) कृष्णवर्ण-सा था। (इसका शेष वर्णन औपपातिक-सूत्र में किये हुए वनखण्ड के वर्णन के समान जान लेना चाहिए।) विवेचन-नालन्दानिवासी लेप श्रमणोपासक : उसकी विशेषताएँ उसके द्वारा निर्मित उदक, शाला एवं वनखण्ड–प्रस्तुत अध्ययन के प्रारम्भ में भगवान् महावीर के युग के राजगृह नगर और तदन्तर्गत ईशानकोण में स्थित एक विशिष्ट उपनगरी नालन्दा का सजीव वर्णन किया गया है, वास्तव में राजगृह और नालन्दा भगवान् महावीर एवं तथागत बुद्ध दोनों की तपोभूमि एवं साधनाभूमि रही हैं / राजगृह को श्रमणशिरोमणि भगवान् महावीर के चौदह वर्षावासों का सौभाग्य प्राप्त हुअा था। वहीं गणधर श्री गौतमस्वामी एवं उदकनिर्ग्रन्थ का संवाद हुआ है। इसके पश्चात् नालन्दानिवासी गृहस्थ श्रमणोपासक 'लेप' की सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रसम्पदा का शास्त्रकार ने वर्णन किया है। इस वर्णन पर से लेप श्रमणोपासक की निर्ग्रन्थप्रवचन पर दृढ श्रद्धा, धर्मदृढ़ता, आचारशीलता तथा सबके प्रति उदारता एवं गुणग्राहकता का परिचय मिलता है। लेप श्रमणोपासक के द्वारा बनाई हुई उदकशाला का नाम 'शेषद्रव्या' रखने के पीछे भी उसकी अल्पारम्भी-अल्पपरिग्रही एवं असंग्रहीवृत्ति परिलक्षित होती है; क्योंकि लेप गृहपति ने आवासभवन के निर्माण के बाद बची हुई सामग्री (धनराशि आदि) से उस उदकशाला का निर्माण कराया था, उदकशाला के निकट ही एक वनखण्ड उसने ले लिया था, जिसका नाम 'हस्तियाम' था। महावीरशिष्य गणधर गौतम और पाश्वपित्य उदकनिर्ग्रन्थ का संवादस्थल यही वनखण्ड रहा है। इसलिए शास्त्रकार को इन दोनों स्थलों का वर्णन करना आवश्यक था।' उदकनिर्ग्रन्थ की जिज्ञासा : गणधरगौतम को समाधानतत्परता ८४५--तस्सि च णं गिहपदेसंसि भगवं गोतमे विहरति, भगवं च णं हे आरामंसि / अहे णं उदए पेढालपुत्ते पासाच्चिज्जे नियंठे मेतज्जे गोत्तेणं जेणेव भगवं गोतमे तेणेव उवागच्छति, उवाच्छित्ता भगवं गोतमं एवं वदासी-पाउसंतो गोयमा ! अस्थि खलु मे केइ पदेसे पुच्छियव्वे, तं च मे पाउसो! अहादरिसियमेव वियागरेहि / सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वदासी -अवियाई पाउसो ! सोच्चा निसम्म जाणिस्सामो। 1. सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 407-408 का सारांश 2. सवायं—'शोभनबाक् सवाया सा विद्यते यस्यः सद्वाचः / चूणि मू. पा. 237 पृ. 'सह वादेन सवादः पृष्टः, सदाचं वा शोभनमारतीकं वा प्रश्न पृष्टः / " --सूत्र कृ. शी. वृत्ति पत्रांक 409 दोनों का भावार्थ 'मूलार्थ' में दिया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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