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________________ 116 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्छ अज्झोरहेहि वि तिणि [3], तणेहि वि तिणि पालावगा [3], प्रोसहीहि वि तिष्णि[३], हरितेहिं वि तिण्णि [3], उदगजोणिएहि उदरहिं प्रवहिं जाव पुक्खलत्थिभएहि [1] तसपाणत्ताए विउम॒ति / [2] ते जीवा तेसि पुढविजोणियाणं उदगजोणियाणं रुक्खजोणियाणं अज्झोरुहजोणियाणं तणजोणियाणं प्रोसहिजोणियाणं हियजोणियाणं रुक्खाणं अज्झोरहाणं तणाणं ओसहोणं हरियाणं मूलाणं जाव बीयाणं प्रायाणं कायाणं जाब कुराणं उदगाणं अवगाणं जाव पुक्खलस्थिभगाणं सिणेहमारेति / ते जीवा आहारेति पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि रुक्ख जोणियाणं अज्झोरहजोणियाणं तणजोणियाणं ओसहिजोणियाणं हरियजोणियाणं मूलजोणियाणं कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं प्रायजोणियाणं कायजोणियाणं जाव कूरजोणियाणं उदगजोणियाणं अवगजोणियाणं जाव पुक्खलस्थिभगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा गाणावण्णा जाव मक्खायं / 731-[1] श्रीतीर्थंकरदेव ने जीवों के अन्य भेद भी बताए हैं—इस वनस्पतिकायिक जगत् में कई जीव-पृथ्वीयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक वृक्षों में, कई वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कई वृक्षयोनिक अध्यारूह वृक्षों में, कई अध्यारूह योनिक अध्यारूहों में कई अध्यारूहयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, कई पृथ्वीयोनिक तृणों में, कई तृणयोनिक तणों में, कई तणयोनिक मूल से लेकर बीजपर्यन्त अवयवों में, इसी तरह औषधि और हरितों के सम्बन्ध में तीनतीन आलापक कहे गए हैं, (कई उनमें); कई पृथ्वीयोनिक आर्य, काय से लेकर कूट तक के वनस्पतिकायिक अवयवों में, 'कई उदकयोनिक वृक्षों में, वृक्षयोनिक वृक्षों में, तथा' वृक्षयोनिक मूल से लेकर बीज तक के अवयवों में, इसी तरह अध्यारूहों, तृणों, औषधियों और हरितों में (पूर्वोक्तवत् तीन-तीन पालापक कहे गए हैं, (उनमें), तथा कई उदकयोनिक उदक, अवक से लेकर पुष्कराक्षिभगों में त्रसप्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। [2] वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों के, जलयोनिक वृक्षों के, अध्यारूडोनिक वृक्षों के, एवं तणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक वृक्षों के तथा वृक्ष, अध्यारूह, तृण, औषधि, हरित, एवं मल से लेकर बीज तक के, तथा आर्य, काय से लेकर कुट वनस्पति तक के एवं उदक: पुष्कराक्षिभग वनस्पति तक के स्नेह का आहार करते हैं। वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं। उन वृक्षयोनिक, अध्यारूहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, मूल योनिक, कन्दयोनिक, से लेकर बीजयोनिक पर्यन्त, तथा आर्य, काय से लेकर कूटयोनिकपर्यन्त, एवं अवक अवकयोनि से लेकर पुष्कराक्षिभगयोनिकपर्यन्त त्रसजीवों के' नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान से युक्त तथा विविध पुद्गलों से रचित दूसरे शरीर भी होते हैं / ये सभी जीव स्वस्वकर्मानुसार ही अमुक-अमुक रूप में अमुकयोनि में उत्पन्न होते हैं / ऐसा तीर्थकरदेव ने कहा है। विवेचन–अनेकविध वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि और पाहार की प्रक्रिया--प्रस्तुत दस सूत्रों(७२२ से 731 तक) में शास्त्रकार ने वनस्पतिकाय जीव के बीज, वक्ष आदि भेदों की उत्पत्ति, स्थिति, संवृद्धि तथा आहार की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन किया है। 1. देखें विवेचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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