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________________ 90 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ___ इसी प्रकार वे अधार्मिक पुरुष स्त्रीसम्बन्धी तथा अन्य विषयभोगों में मूच्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त (रचे-पचे, या ग्रस्त) तथा तल्लीन हो कर पूर्वोक्त प्रकार से चार, पाँच या छह या अधिक से अधिक दस वर्ष तक अथवा अल्प या अधिक समय तक शब्दादि विषयभोगों का उपभोग करके प्राणियों के साथ वैर का पुज बांध करके, बहुत-से करकर्मों का संचय करके पापकर्म के भार से इस तरह दब जाते हैं, जैसे कोई लोहे का गोला या पत्थर का गोला पानी में डालने पर पानी के तल (सतह) का अतिक्रमण करके भार के कारण (नीचे) पृथ्वीतल पर बैठ जाता है, इसी प्रकार (पापकर्मों के भार से दबा हुआ) अतिक र पुरुष अत्यधिक पाप से युक्त पूर्वकृत कर्मों से अत्यन्त भारी, कर्मपंक से अतिमलिन, अनेक प्राणियों के साथ बैर बाँधा हुआ, (या कुविचारों से परिपूर्ण), अत्यधिक अविश्वासयोग्य, दम्भ से पूर्ण, शठता या वंचना में पूर्ण, देश, वेष एवं भाषा को बदल कर धूर्तता करने में अतिनिपुण, जगत् में अपयश के काम करने वाला, तथा त्रसप्राणियों के घातक ; भोगों के दलदल में फंसा हुआ वह पुरुष प्रायुध्यपूर्ण होते ही मरकर रत्नप्रभादि भूमियों को लाँघ कर नीचे के नरकतल में जाकर स्थित होता है। __ वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोन (चतुष्कोण) होते हैं, तथा नीचे उस्तरे की धार के समान तीक्ष्ण होते हैं। उनमें सदा घोर अन्धकार रहता है। वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिष्कमण्डल की प्रभा (प्रकाश) से रहित हैं। उनका भूमितल मेद, चर्बी, मांस, रक्त, और मवाद की परतों से उत्पन्न कीचड़ से लिप्त है / वे नरक अपवित्र, सड़े हुए मांस से युक्त, अतिदुर्गन्ध पूर्ण और काले हैं / वे सधूम अग्नि के समान वर्ण वाले, कठोर स्पर्श बाले और दुःसह्य हैं। इस प्रकार नरक बड़े अशुभ हैं और उनकी वेदनाएं भी बहुत अशुभ हैं। उन नरकों में रहने वाले नैरयिक न कभी निद्रासुख प्राप्त करते हैं, न उन्हें प्रचलानिद्रा आती है, और न उन्हें श्रुति (धर्मश्रवण), रति (किसी विषय में रुचि) धृति (धर्य) एवं मति (सोचने विचारने की बुद्धि) प्राप्त होती है। वे नारकीय जीव वहाँ कठोर, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, प्रचण्ड (उन), दुर्गम्य, दुःखद, तीन, दुःसह वेदना भोगते हुए अपना समय (आयुष्य) व्यतीत करते हैं / जैसे कोई वृक्ष पर्वत के अग्रभाग में उत्पन्न हो, उसकी जड़ काट दी गई हो, वह आगे से भारी हो, वह जिधर नीचा होता है, जिधर विषम होता है, जिधर दुर्गम स्थान होता है, उधर ही गिरता है, इसी प्रकार गुरुकर्मा पूर्वोक्त पापिष्ठ पुरुष एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को तथा एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त करता है। वह दक्षिणगामी नैरयिक, कृष्णपाक्षिक तथा भविष्य में दुर्लभ-बोधि होता है। अतः यह अधर्मपक्षीय प्रथम स्थान अनार्य है, केवलज्ञानरहित है, यावत् समस्त दुःखों का. नाशक मार्ग नहीं है / यह स्थान एकान्त मिथ्या एवं बुरा (असाधु) है। इस प्रकार अधर्मपक्षनामक प्रथम स्थान का विचार किया गया है। विवेचन-प्रथमस्थानः अधर्मपक्ष : वृत्ति, प्रवृत्ति एवं परिणाम प्रस्तुत सूत्र में अधर्मपक्षी के अधिकारी-गृहस्थ की मनोवृत्ति, उसकी प्रवृत्ति और उसके परिणाम पर विचार प्रस्तुत किया है / . वृत्ति-प्रवृत्ति -अधर्मपक्ष के अधिकारी विश्व में सर्वत्र हैं। वे बड़ी-बड़ी आकांक्षाएँ रखते हैं, महारम्भी, महापरिग्रही एवं अमिष्ठ होते हैं / अठारह ही पापस्थानों में लिप्त रहते हैं / स्वभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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