________________ 16 प्रथम उद्देशक : गाथा 1 से 6 'एगे समण-माहणा' की व्याख्या-प्रस्तुत गाथा में समण-माहणा का शब्दशः अर्थ होता हैश्रमण और माहन / परन्तु कौन श्रमण और कौन माहन ? इस प्रसंग में वृत्तिकार श्रमण का अर्थ शाक्य भिक्षु करते हैं और माहन का अर्थ ब्राह्मण करते हुए उसका स्पष्टीकरण करते हैं-बार्हस्पत्य (चार्वाकलोकायतिक) आदि। तथा आगे चलकर ब्राह्मणपद के प्रवाह में सांख्य, वैशेषिक, नैयायिक एवं मीमांसक को भी ले लेते हैं, क्योंकि ये सभी मिथ्यात्व और अज्ञान से ग्रस्त हैं, अपनी-अपनी मिथ्यामान्यताओं से आग्रहपूर्वक चिपके हुए हैं / साथ ही स्वच्छन्दरूप से कामभोगों में आसक्त होने के कारण ये अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में भी प्रवृत्त होते हों, यह स्वाभाविक है / 26 पर-समय : मिथ्यात्वग्रस्त क्यों और कैसे ?- जैन सिद्धान्तानुसार मिथ्यात्व का लक्षण है-- जो वस्तु जैसी और वस्तुतः जिस स्वरूप में है, उसे वैसी और उस रूप में न मानकर विपरीत रूप में मानना। मिथ्यादर्शन मुख्यतया दो प्रकार का होता है“(१) यथार्थ तत्त्वों में श्रद्धा न होना, (2) अयथार्थ वस्तु पर श्रद्धा करना।" स्थानांगसूत्र में जीव, धर्म, मार्ग, साधु और मुक्त को लेकर मिथ्यात्व के 10 भेद बताये हैं। इसी प्रकार अक्रिया, अविनय, अज्ञान यों तीन प्रकार, आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक आदि 5 एवं 25 प्रकार के मिथ्यात्व शास्त्रों में बताये हैं। सन्मतितकं में मिथ्यात्व के 6 स्थान बताये हैं-(१) आत्मा नहीं है, (2) आत्मा नित्य नहीं है, (3) आत्मा कर्ता नहीं है, (4) आत्मा किसी भी कर्म का भोक्ता नहीं है, (5) मोक्ष नहीं है और (6) मोक्ष का उपाय नहीं है।' मिथ्यात्व के पूर्वोक्त लक्षण, प्रकार, कारणों और स्थानों की कसौटी पर जब हम उन-उन परसमयों (पूर्वोक्त बौद्ध, लोकायतिक, सांख्य आदि श्रमण-ब्राह्मण सिद्धान्तों) को कसते हैं तो स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि वे किस-किस प्रकार के मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं ! कठिन शब्दों को व्याख्या--गंथे--ग्रन्थ का अर्थ यहाँ कोई शास्त्र या पुस्तक न होकर लक्षणावृत्ति से 26 (क) श्रमणा: शाक्यादयो, बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्च ब्राह्मणाः / ".."सांख्या एवं व्यवस्थिता:'""वैशेषिकाः पुनराहुः ..."तथा नैयायिका तथा मीमांसका:-एवं चांगीकृत्य ते लोकायितकाः --सुत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 14 30 (क) "दसविहे मिच्छत्त पण्णते, तं जहा-अधम्मेधम्मसण्णा धम्मे अधम्मसण्णा, मग्गे उम्मगसण्णा, अमग्गे मग्ग सण्णा, अजीवेसु जीव-सण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्ते सु मुत्तसम्या, मुत्ते सु अमुत्तसम्णा / -स्थानांग स्था०-१०-सूत्र 734 (ख) तिविहे मिच्छत्तं पण्णते तं जहा-अकिरिए, अविणए, अण्णाणे। -स्थानांग स्था० 3 (ग) धर्मसंग्रह अधिकार-२ श्लो० 22, कर्मग्रन्थ भाग 4 मा० 52 31 पत्थि, ण णिच्चो, ण कुणइ कथं ण वेएइ, पत्थि णिब्वाणं / पत्थि य मोक्खोवाओ, छय मिच्छत्तस्स ठाणाई॥ --सन्मतितर्क (ड.) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org