SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ उद्देशक : गाथा 225 से 226 225 के समय) भागने वाले लोगों के पीछे-पीछे (सरकता हुआ) चलता है, उसी तरह मन्दमति साधक भी संयमनिष्ठ मोक्षयात्रियों के पीछे-पीछे रेंगता हुआ चलता है (अथवा वह उन दुःशिक्षकों का पिछलग्गू हो जाता है / ) विवेचन - महापुरुषों की दुहाई देकर संयमभ्रष्ट करने वाले प्रस्तुत पंचसूत्रगाथाओं (सूत्रगाथा 225 से 226 तक) में एक ऐसे अनुकूल उपसर्ग और मन्दबुद्धि साधकों पर उसकी प्रतिक्रिया का वर्णन किया गया है, जिसमें कुछ शिथिल साधकों द्वारा अपनी अनाचाररूप प्रवृत्तियों को आचार में समाविष्ट करने हेतु प्रसिद्ध पूर्वकालिक ऋषियों की दुहाई देकर कुतर्कों द्वारा मन्दसाधक की बुद्धि को भ्रष्ट किया जाता है और उन्हें अनाचार में फंसाने का प्रयत्न किया जाता है। प्रस्तुत पंचसूत्री में कुछ ऋषियों के नाम लिए बिना, तथा कुछ प्रसिद्ध ऋषियों के नाम लेकर इस उपसर्ग के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं (1) पूर्वकाल में वल्कलचीरी, तारागण आदि महापुरुषों ने पंचाग्नि आदि तप करके शीतजल; कन्दमूल-फल आदि का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की थी। (2) वैदेही नमिराज ने आहार त्यागकर (3) रामगुप्त ने आहार का उपभोग करके, (4) बाहुकऋषि ने शीतल जल का उपभोग करके, (5) इसी तरह तारायण या नारायण ऋषि ने भी जल सेवन करके, (6, 7, 8, 6) असिल, देवल, द्वैपायन एवं पाराशर महर्षि ने शीत (कच्चा) जल, बीज और हरी वनस्पति का उपभोग करके, सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की है, ऐसा मैंने महाभारत आदि पुराणों से सुना है / पूर्वकाल (वेता-द्वापर आदि युगों) में ये महापुरुष प्रसिद्ध रहे हैं और आर्हत प्रवचन में ये माने गये हैं।' ये महापुरुष कहाँ तथा किस रूप में प्रसिद्ध हैं ?--जमिवैदेही-भागवत-पुराण में निमि का चरित्र अंकित है। वहाँ निमि के 'जनक', 'वैदेह' और 'मिथिल' नाम क्यों पड़े ? इसका भी कारण बताया गया है। बौद्धग्रन्थ सुत्तपिटक में 'निमिराजचरिया' के नाम से निमि का चरित मिलता है। जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र में 'नमिपव्वज्जा' अध्ययन में नमिराजर्षि और इन्द्र का संवाद अंकित है।' 1 जैन साहित्य का बहद् इतिहास, भा० 1 2 (क) सुयगडंग सुत्तं (मू० पा० टिप्पण) प्रस्तावना एवं टिप्पण 10 14, 15 तथा 40-41 (ख) णमी वेदेही–देखिये श्रीमद् भागवत० (3 / 13 / 1 से 1 से 13 श्लो० तक) में-'श्री शक उवाच निमिरिक्ष्वाकुतनयो वशिष्ठमवृतत्विजम् / आरभ्य""वृतोऽस्मि भोः // 1 // तं निर्वृत्या""करोन्मखम् / / 2 / / निमिश्चलंमिदं विद्वान्'""यावता गुरुः // 3 // शिष्यव्यतिक्रम"निमेः पण्डितमानिन: // 4 // निमिः प्रतिददो शापं."धर्ममजानतः // 5 // इत्युससर्ज एवं देहं निमिध्यात्मकोविदः"प्रपितामहः ।।.."देवा उच:-विदेह उष्यतां कामं लोचनेषु शरीरिणाम् / उन्मेषणनिमेषाभ्यां लक्षितोऽध्यात्मसंस्थितः // 11 // जन्मना जनकः सोऽभूद् बैदेहस्तु विदेहजः / मिथिलो मथनाज्जातो, मिथिला येन निर्मितः // 13 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy