________________ 126 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं / पंचेन्द्रिय प्राणियों के मलमूत्र, मवाद आदि में भी विकलेन्द्रिय जीव पैदा हो जाते हैं। सचित्त-अचित्त वनस्पतियों में भी घुण, कीट आदि उत्पन्न हो जाते हैं / ये जीव जहां-जहां उत्पन्न होते हैं, वहां-वहां के पार्श्ववर्ती या आश्रयदायी सचित्त या अचित्त प्राणियों के शरीरों से उत्पन्न मल, मूत्र, पसीना, रक्त, जल, मवाद, आदि का ही पाहार करते हैं।' अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय और पृथ्वीकाय के प्राहारादि का निरूपण 736- अहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा तं सरीरगं वातसंसिद्ध वातसंगहितं वा वातपरिगतं उड्ढं वातेसु उड्ढभागी भवइ अहे वातेसु अहेभागी भवइ तिरियं वाएसु तिरियभागी भवइ, तंजहा-पोसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए / ते जीवा तेसि नाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेंति, [ते जीवा प्राहारेंति] पुढविसरोरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावर जोणियाणं प्रोसाणं जाव सुद्धोदगाणं सरीरा णाणावण्णा जाब मक्खातं / ७३६-इसके पश्चात् श्रीतीर्थंकरदेव ने अन्यान्य प्राणियों के आहारादि का प्रतिपादन किया है। इस जगत् में नानाविध योनियों में उत्पन्न होकर कर्म से प्रेरित वायुयोनिक जीव अप्काय में आते हैं / वे प्राणी वहाँ अप्काय में आ कर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त तथा अचित्त शरीर में अप्कायरूप में उत्पन्न होते हैं। वह अप्काय वायु से बना हुआ (संसिद्ध) या वायु से संग्रह किया हुआ अथवा वायु के द्वारा धारण किया हुअा होता है / अतः वह (जल) ऊपर का वायु हो तो ऊपर, नीचे का वायु हो तो नीचे और तिरछा वायु हो तो तिरछा जाता है। उस अप्काय के कुछ नाम ये हैं--प्रोस, हिम (बर्फ), मिहिका (कोहरा या धुध), प्रोला (गड़ा), हरतन और शुद्ध जल / वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं / तथा पूर्वभुक्त त्रस स्थावरीय पाहार को पचा कर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं / उन बस-स्थावरयोनि समूत्पन्न अवश्याय (प्रोस) से लेकर शुद्धोदकपर्यन्त जलकायिक जीवों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान प्राकार-प्रकार आदि के और भी अनेक शरीर होते हैं, ऐसा श्रीतीर्थंकरदेव ने कहा है।' ७४०-अहावरं पुरक्खातं—इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थवक्कमा तस-थावरजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि तस-थावर जोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खायं / ७४०-इसके अनन्तर श्रीतीर्थंकरप्रभु ने अप्काय से उत्पन्न होने वाले विविध जलकायिक जीवों का स्वरूप बताया है / इस जगत् में कितने ही प्राणी जल से उत्पन्न होते हैं, जल में ही रहते 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 357 का सारांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org