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________________ आहारपरिज्ञा : तृतीय अध्ययन : सूत्र 741, 742, 743] [ 127 हैं, और जल में ही बढ़ते हैं। वे अपने पूर्वकृतकर्म के प्रभाव से जल में पाते हैं और जल में जलरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन त्रस-स्थावर योनिको जलों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं; तथा उन्हें पचा कर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। उन त्रस-स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्णादि वाले दूसरे शरीर भी होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरप्रभु ने कहा है। ___ ७४१--प्रहावरं पुरक्खातं--इहेगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा प्राहारेंति पुढविसरोरं जाव संतं, प्रवरे वि य गं तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खातं। ७४१-इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने जलयोनिक जलकाय के स्वरूप का निरूपण किया है। इस जगत् में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्मों के वशीभूत होकर पाते हैं / तथा उदकयोगिक उदकजीवों में उदकरूप में जन्म लेते हैं / वे जीव उन उदकयोनिक उदकों के स्नेह का आहार करते हैं / इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि शरीरों को भी पाहार ग्रहण करते हैं और उन्हें अपने स्वरूप में परिणत कर लेते हैं। उन उदकयोनिक उदकों के अनेक वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श एवं संस्थान वाले और भी शरीर होते हैं, ऐसा श्री तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित है। ७४२-~-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया जाव कम्मनिदाणेणं तत्थवक्कमा उदगजोगिएसु उदगेसु तसपाणताए विउ ति, ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा प्राहारैति पुढविसरीरं जाव संतं, प्रवरे वि य णं तेसि उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा नाणावण्णा जाव मक्खातं / ७४२-इसके पश्चात श्री तीर्थकरदेव ने पहले उदकयोनिक त्रसकाय के स्वरूप का निरूपण किया था कि इस संसार में अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से उदकयोनिक उदकों में आकर उनमें त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं। इसके अतिरिक्त वे पृथ्वी आदि के शरीरों का भी प्राहार करते हैं। उन उदकयोनिक त्रसप्राणियों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अन्य अनेक शरीर भी होते हैं, यह तीर्थकर. प्रभु ने बताया है। ७४३-~-प्रहावरं पुरक्खातं-इहेगतिया सत्ता नाणाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तस्थवक्कमा णाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउ ति, ते जीवा तेसि जाणाविहाणं तस-थावराणं पाणाणं सिणेहमाहारेति, ते जीवा पाहारेति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरे वि य णं तेसि तस-थावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा णाणावण्णा जाव मक्खातं / सेसा तिणि पालावगा जहा उदगाणं / ७४३-इसके पश्चात् श्री तीर्थकरदेव ने जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में अन्य बातों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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