________________ 54 सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन--समय कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मन में ऐसा होता है कि 'मैं ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है, यह बुरा है तब मैं ठीक से जाने बिना यह कह दूं कि यह अच्छा है और यह बुरा है, तो असत्य ही होगा, जो मेरा असत्य भाषण मेरे लिए घातक (नाश का कारण) होगा, जो घातक होगा, वह अन्तराय (मोक्ष मार्ग में होगा। अतः वह असत्य भाषण के भय से और घणा से न यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कि यह बुरा है / प्रश्नों के पूछे जाने पर कोई स्थिर बातें नहीं करता। यह भी नहीं, वह भी नहीं, ऐसा भो नहीं, वैसा भी नहीं...।' इसी प्रकार किसी पदार्थ विषयक प्रश्न के उत्तर में अच्छा-बुरा कहने से राग, द्वोष, लोभ, घणा आदि की आशंका, या तर्क-वितर्को का उत्तर देने में असमर्थता विधात (दुर्भाव) और बाधक समझकर किसी प्रकार का स्थिर उत्तर न देकर अपना अज्ञान प्रकट करना भी इसी अज्ञानवाद का अंग है / 14 कठिन शब्दों को व्याख्या-मिगा-वन्य पशु या विशेषतः हिरण। परियाणियाणि - वृत्तिकार के अनुसार--परित्राण-रक्षण से युक्त / चूर्णिकार के अनुसार-जो परितः- सव ओर से, ततानि-आच्छादित है. वे परितत हैं। पासिताणि-बाशयक्त स्थान / सालति - वत्तिकार के अनसार, अनर्थब आदि बन्धनों में एकदम जा पड़ते हैं। चूर्णिकार के अनुसार, कुटिल अन्य पाशों में जकड़ जाते हैं, अथवा उनके एक ओर पाश हाथ में लिए व्याध खड़े होते हैं, दूसरी ओर वागुरा (जाल या फंदा) पड़ा होता है, इन दोनों के बीच में भटकते हैं / वज्झं-बन्धनाकार में स्थित बन्धन अथवा वागुरा आदि बन्धन (बँधने वाले होने से) बन्ध कहलाते हैं / ये दोनों अर्थ बंधं एवं बंधस्स पाठान्तर मानने से होते हैं। वशं का संस्कृत रूपान्तर होता है-वज्र या वध्य / वधं का यहाँ अर्थ है-चमड़े का पाश-बन्धन / अहियाप्पाऽहियपण्णाणे-वृत्तिकार के अनुसार--अहितात्मा तथा अहितप्रज्ञान-अहितकर बोध या बुद्धि वाला। चूर्णिकार ने 'अहितेहितपण्णाणा' पाठान्तर माना है जिसका अर्थ होता है-अहित में हित बुद्धि वाले-हित समझने वाले / विसमंतेणुवागते-वृत्तिकार के अनुसार विषमान्त अर्थात् कूटपाशादि युक्त प्रदेश को प्राप्त होता है, अथवा कूटपाशादि युक्त विषम प्रदेश में अपने आपको गिरा देता है / चूर्णिकार के अनुसार--विषम यानि कूटपाशादि उपकरणों से घिरा हुआ, बागुरा (जाल) का द्वार, उसके पास पहुंच जाता है / अवियत्ता-अव्यक्त-मुग्ध भोले-भाले, सहजसद्विवेकविकल। अकोदिया-सुशास्त्र बोध रहित-अपण्डित / सव्वप्पगं-सर्वात्मक-जिसकी सर्वत्र आत्मा है, ऐसा सर्वात्मक सर्वव्यापी-लोभ / विउक्कसं-व्युत्कर्ष-विविध प्रकार का उत्कर्ष-गर्व मान / मंमाया, कपट / अप्पत्तियं -अप्रत्यय-क्रोध / वृत्ताणभासए-कथन या भाषण का केवल अनुवाद कर देता है / अन्नणियाणं-भगवती सूत्र की वृत्ति के अनुसार-कुत्सित ज्ञान अज्ञान है, जिनके वह (ऐसा) अज्ञान है, वे अज्ञानिक हैं। वीमंसा -पर्यालोचनात्मक विचारविमर्श अथवा मीमांसा / अण्णाणे नो नियच्छति-निश्चय रूप से अज्ञान के विषय में युक्त-संगत नहीं है / तिव्वं सोयं णियच्छति - चूर्णिकार के अनुसार तीव्र-अत्यन्त स्रोत= भय द्वार को नियत या अनियत (निश्चित या अनिश्चित रूप से पाता है / वृत्तिकार के अनुसार, तीव्र गहन या शोक निश्चय ही प्राप्त करता है। पंथाणुगामिए---अन्य मार्ग पर चल पड़ता है / सव्वज्जुए-वृत्तिका र एवं चूर्णिकार के अनुसार, सब प्रकार के ऋजु-सरल सर्वतोऋतु-मोक्ष गमन के लिए अकुटिल -संयम अथवा सद्धर्म / वियक्काहि-वितर्को-विविध मीमांसाओं या असत्कल्पनाओं के कारण / दुक्ख ते नाइतुति-चूर्णिकार के 14 देखिये, दीघनिकाय ब्रह्मजाल सुत्त में तथागत बुद्ध द्वारा कथित अमराविक्खेववाद / -(हिन्दी अनुवाद)पृ० 1-10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org