________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय 52. जो व्यक्ति जानता हुआ मन से हिंसा करता है, किन्तु शरीर से छेदन-भेदनादि क्रिया रूप हिंसा नहीं करता एवं जो अनजान में (शरीर से) हिंसा कर देता है, वह केवल स्पर्शमात्र से उसका (कर्मबन्ध का) फल भोगता है / वस्तुतः वह सावध (पाप) कर्म अव्यक्त-अस्पष्ट-अप्रकट होता है। 53. ये तीन (कर्मों के) आदान (ग्रहण-बन्ध के कारण) हैं, जिनसे पाप (पापकर्म बन्ध) किया जाता है- किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं अभिक्रम-आक्रमण करना, (2) प्राणिवध के लिए नौकर आदि को भेजना या प्रेरित करना, और (3) मन से अनुज्ञा-अनुमोदना देना। 54. ये ही तीन आदान-कर्मबन्ध के कारण हैं, जिनसे पापकर्म किया जाता है। वहाँ (पाप कर्म से) भावों की विशुद्धि होने से कर्मबन्ध नही, किन्तु मोक्ष की प्राप्ति होती है। 55. (किसी दुष्काल आदि विपत्ति के समय) कोई असंयत गृहस्थपिता आहार के लिए पुत्र को भी मारकर भोजन करे तो वह कर्मबन्ध नहीं करता। तथा मेधावी साधु भी निष्पृहभाव से उस आहारमांस का सेवन करता हुआ कर्म से लिप्त नहीं होता। 56. जो लोग मन से (किसी प्राणी पर) द्वेष करते हैं, उनका चित्त विशुद्धियुक्त नहीं है तथा उनके (उस) कृत्य को निरबद्य (पापकर्म के उपचय रहित-निष्पाप) कहना अतथ्य-मिथ्या है। तथा वे लोग संवर (आस्रवों के स्रोत के निरोध) के साथ विचरण करने वाले नहीं हैं। विवेचन -बौद्धों का कर्मोपचय निषेधवाद-अज्ञानवादियों की चर्चा के बाद बौद्धों के द्वारा मान्य एकान्त क्रियावाद की चर्चा गाथा 51 से 56 तक प्रस्तुत की गई है। वैसे तो बौद्ध-दर्शन को अक्रियावादी कहा गया है, बौद्ध-ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय के तृतीय भाग-अट्ठकनिपात के सिंहसुत्त में तथा विनयपिटक के महावग्ग (पाली) के सीहसेनापति वत्थु में बुद्ध के अक्रियावादी होने का उल्लेख है, सूत्रकृतांग के 12 वें समवसरण अध्ययन में सूत्र 535 की चूणि एवं वृत्ति में भी बौद्धों को अक्रियावादियों में परिगणित किया गया है, परन्तु यहाँ स्पष्ट रूप से बौद्ध-दर्शन को (वृत्ति और चूणि में) क्रियावादी-दर्शन बताया गया है, वह अपेक्षाभेद से समझना चाहिए। वृत्तिकार ने कियावादी-दर्शन का रहस्य खोलते हुए कहा है-जो केवल चैत्यकर्म (चित्त विशुद्धिपूर्वक) किये जाने वाले किसी भी कर्म आदि क्रिया को प्रधान रूप से मोक्ष का अग मानते हैं, उनका दर्शन क्रियावादी दर्शन है। ये एकान्त क्रियावादी क्यों हैं ? इसका रहस्य 51 वीं सूत्र गाथा में शास्त्रकार बताते हैं-'कम्मचितापणट्ठाणं'-अर्थात् ये ज्ञानावरणीय आदि की चिन्ता से रहित-दूर है / ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म 16 (क) सूयगडंग सुत्त (मुनि जम्बूविजयजी सम्पादित) की प्रस्तावना पृ० 10 (ख) सूत्रकृतांग चूणि मू० पा० टिप्पण पृ० 67 (ग) "..."अहं हि, सीह ! अकिरियं वदामि कायदुच्चरितस्स, वचीदुच्चरितस्स, मनोदुच्चरितस्स अनेकविहितानां पापकानं अकूसलानं धम्मानं अकिरियं वदामि"" -सुत्तपिटके अंगुत्तरनिकाय, पालि भा० 3, अट्ठकनिपात पृ० 263-266 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org