________________ 156 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय 1 समस्त जीव सुखी और एक के दुःख से सारे दुःखी हो जाते / प्रत्येक जीव का पृथक् पृथक् / और अजीव (धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक) का उससे भिन्न स्वतन्त्र अस्तित्व ही अभीष्ट है।' (3) धर्म और अधर्म-श्रुत और चारित्र या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र धर्म कहला प्रात्मा के स्वाभाविक परिणाम, स्वभाव या गुण हैं, तथा इनके विपरीत मिथ्यात्व, त्र प्रमाद, कषाय और योग; ये भी आत्मा के ही गुण, परिणाम हैं किन्तु कर्मोपाधिजनित होने मुक्ति के विरोधी होने से अधर्म कहलाते हैं। धर्म और अधर्म के कारण जीवों की विचिः इसलिए इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व मानना चाहिए / उपर्युक्त कथन सत्य होते हुए भी 4 निक काल, स्वभाव, नियति या ईश्वर आदि को ही जगत् की सब विचित्रताओं का का कर धर्म, अधर्म के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने से इन्कार करते हैं। किन्तु काल आदि धर्म, साथ ही विचित्रता के कारण होते हैं, इन्हें छोड़ कर नहीं। अन्यथा एक काल में उत्पन्न हुए में विभिन्नताएँ या विचित्रताएँ घटित नहीं हो सकतीं / स्वभाव आदि की चर्चा अन्य दार्शनिः से जान लेनी चाहिए। (4) बन्ध और मोक्ष-कर्मपुद्गलों का जीव के साथ दूध पानी की तरह सम्बः बन्ध है, और समस्त कर्मों का क्षय होना-प्रात्मा से पृथक् होना मोक्ष है। बन्ध और अस्तित्व प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है / इन दोनों के अस्तित्व पर अश्रद्धा व्यक्ति / कुश पापाचार या अनाचार में गिरा देती है। अत: आत्मकल्याणकामी को दोनों पर अ त्याग कर देना चाहिए। कई दार्शनिक (सांख्यादि) आत्मा का बन्ध और मोक्ष नहीं मानते। हैं--प्रात्मा अमूर्त है, कर्मपुद्गल मूर्त / ऐसी स्थिति में अमूर्त आत्मा का आकाशवत् कर्मपुर साथ बन्ध या लिप्तत्व कैसे हो सकता है ? जब अमूर्त आत्मा बद्ध नहीं हो सकता तो उ .(मोक्ष) होने की बात निरर्थक है, बन्ध का नाश ही तो मोक्ष है। अतः बन्ध के अभाव में सम्भव नहीं / वस्तुतः यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं है / चेतना अमूर्त पदार्थ है, फिर भी मद्य अ पदार्थों के साथ सम्बन्ध होने (सेवन) से उसमें में विकृति स्पष्टतः देखी जा सकती है। इस रिक्त संसारी आत्मा एकान्ततः अमूर्त नहीं-मूर्त है / अतः उसका मूर्त कर्म पुद्गलों के साथ सुसंगत है / जब बन्ध होता है, तो एक दिन उसका अभाव-मोक्ष भी सम्भव है। फिर अस्तित्व न मानने पर संसारी व्यक्ति का सम्यग्दर्शनादि साधना का पुरुषार्थ व्यर्थ हो जाए। मोक्ष न मानने पर साध्य या अन्तिम लक्ष्य की दिशा में पुरुषार्थ नहीं होगा। इसलिए अस्तित्व मानना अनिवार्य है। (5) पुण्य और पाप-"शुभकर्म पुद्गल पुण्य है और अशुभकर्म पुद्गल पाप।" का पृथक्-पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व है। कई अन्यतीथिक कहते हैं-इस जगत् में पुण्य ना 1. सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 376-377. 2. नहि कालादिहितो केवलएहितो जायए किंचि / __ इह मुग्गरंधणाइ वि ता सम्बे समुदिया हेऊ॥ 3. "पुद्गलकर्म शुभं यत् तत् पुण्यमिति जिनशासने दष्टम् / यदशुभमथ तत् पापमिति भवति सर्वज्ञनिर्देशात // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org