________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा 122 से 128 141 प्रार्थी (सत्कार-प्रशंसा का अभिलाषी) बने / शून्यगृह-स्थित (जीवन-मरण और पूजा से निरपेक्ष) भिक्षु को (धीरे-धीरे) भैरव (भयंकर) प्राणी अभ्यस्त-सह्य हो जाते हैं। 127. जिसने अपनी आत्मा को ज्ञानादि के समीप पहुंचा दिया है, जो त्रायी (अपना और दूसरों का उपकार कर्ता या त्राता) है, जो स्त्री-पशु-नपुसक-संसर्ग से रहित विविक्त (विजन) स्थान का सेवन करता है तथा जो अपनी आत्मा में भय प्रदर्शित नहीं करता उस साधु का जो चारित्र है, उसे तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र कहा है। 128. गर्मजल को गर्म (बिना ठंडा किये) ही पीने वाले, (श्रु न-चारित्र-रूप) धम में स्थित (स्थिर) एवं (असंयम से) लज्जित होने वाले मुनि को राजा आदि से संसर्ग करना अच्छा नहीं है / (क्योंकि वह) उक्त प्रकार के शास्त्रोक्त आचार-पालन में स्थित तथागत मुनि का भी समाधिभंग करता है। विवेचन-एकाकी-विचरणशील साधु की आचार-संहिता-प्रस्तुत सप्तसूत्री (सूत्रगाथा 122 से 128 तक) में एकाकी विचरणशील विशिष्ट साधु की योग्यता एवं आचार संहिता की झांकी दी गई है। वह 22 सूत्री आचार संहिता इस प्रकार है (1) एकचारी साधु स्थान (कायोत्सर्गादि), आसन और शयन अकेला ही करे, (2) सभी परिस्थितियों में समाधियुक्त होकर रहे, (3) मनोगुप्त, वाग्गुप्त और तपस्या में पराक्रमी हो, (4) शून्यगृह का द्वार न खोले, न बन्द करे, (5) प्रश्न का उत्तर न दे, (6) मकान का कचरा न निकाले, (7) वहाँ घास भी न बिछाएँ, (8) जहाँ सूर्य अस्त हो जाए, वहीं क्षोभरहित होकर ठहर जाए, (6) अनुकूलप्रतिकूल आसन, शयन और स्थान को सहन करे, (10) वहाँ डांस-मच्छर आदि का उपद्रव हो या भयंकर राक्षस आदि हों, अथवा सर्प आदि हो तो भी समभावपूर्वक सहन करे, (11) शून्यागार स्थित साधु दिव्य, जो मानुष और तिर्यंचगत उपसर्ग आएँ उन्हें सहन करे, (12) भय से जरा भी रोंगटे खड़े न होने दे, (13) भयंकर उपसर्ग-पीड़ित होने पर न तो जीने की इच्छा करे नहीं पूजा प्रार्थी हो, (14) शून्यगृह स्थित साध के सतत अभ्यास से भयंकर प्राणी भी सह्य हो जाते हैं। (15) अपनी आत्मा ज्ञानादि में स्थापित करे (16) स्व-परत्राता बने, (17) विविक्तासनसेवी हो, (18) अपनी आत्मा में भय का संचार न होने दे (16) उष्णोदक, गर्म जल पीए, (20) श्रुत-चारित्र धर्म में स्थित रहे, (21) असंयम से लज्जित हो, (22) शास्त्रोक्त आचारवान मुनि भी असमाधिकारक राजादि का संसर्ग न करे / ये मुख्य-मुख्य अर्हताएं हैं, जो एकाकीचर्याशील साधु में होनी चाहिए या उसे प्राप्त करनी चाहिए।" एकाकीचर्या : लाभ या हानि ?-प्रस्तुत सात गाथाओं में एकाकी विचरण की विशिष्ट साधना से सम्बन्धित निरूपण है। समूह के साथ साधु रहेगा तो उसे समूह को रीति-नीति के अनुसार चलना पड़ेगा / सामूहिक रूप से कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, शयन एवं आसन का उपयोग करना होगा। समूह में 13 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति मूल भाषानुबाद भा० 1 पृ० 244 से 250 तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 342 से 352 तक का सार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org