________________ 422 सूत्रकृतांग-तेरहवां अध्ययन-याथातथ्य रूक्षजीविता और भिक्षाजीविता आदि गण केवल उसकी आजीविका के साधन हैं। परमार्थ को न जानने वाला वह अज्ञानी पुनः-पुनः विपर्यास-जन्म, जरा, मृत्यु; रोग, शोक आदि उपद्रवों को प्राप्त होता है। 566-570. जो भिक्ष भाषाविज्ञ है- भाषा के गुण-दोष का विचार करके बोलता है, तथा हितमित-प्रिय भाषण करता है, औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों से सम्पन्न है, और शास्त्रपाठों की सुन्दर व्याख्या एवं अनेक अर्थ करने में विशारद (निपुण) है, सत्य-तत्त्व निष्ठा में जिसकी प्रज्ञा आगाढ़ (गड़ी हुई) है, धर्म-भावना से जिसका हृदय अच्छी तरह भावित (रंगा हुआ) है, वही सच्चा साधु है, परन्तु इन गुणों से युक्त होने पर भी जो इन गुणों के मद से ग्रस्त होकर दूसरों का अपनी बुद्धि से तिरस्कार करता है, (वह उक्त गुणों पर पानी फेर देता है)। जो भिक्षु प्रज्ञावान् होकर अपनी जाति, बुद्धि आदि का गर्व करता है, अथवा जो लाभ के मद से अवलिप्त (मत्त) होकर दूसरों की निन्दा करता है, या उन्हें झिड़कता है, वह बालबुद्धि मूर्ख समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। 571-572. भिक्षु प्रज्ञा का मद, तपोमद, गोत्र का मद और चौथा आजीविका का मद मन से निकाल देहटा दे / जो ऐसा करता है, वही पण्डित और उत्तम आत्मा है। धीर पुरुष इन (पूर्वोक्त सभी) मदों (मद स्थानों) को संसार के कारण समझकर आत्मा से पृथक् कर दे। सुधीरता (बुद्धि से सुशोभित) के धर्म-स्वभाव वाले साधू इन जाति आदि मदों का सेवन नहीं करते। वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित महर्षिगण, नाम-गोत्रादि से रहित सर्वोच्च मोक्ष गति को प्राप्त होते हैं। 573. मृतार्च (शरीर के स्नान-विलेपनादि संस्कारों से रहित अथवा प्रशस्त-मुदित लेश्या वाला) तथा धर्म को जाना-देखा हुआ भिक्षु ग्राम और नगर में (भिक्षा के लिए) प्रवेश करके (सर्वप्रथम) एषणा और अनैषणा को अच्छी तरह जानता हुआ अत्र-पान में आसक्त न होकर (शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे)। विवेचन-साधु को ज्ञानादि साधना में तथ्य-अतथ्य-विवेक--प्रस्तुत 6 सूत्रगाथाओं में ज्ञान-दर्शनचारित्र आदि की यथातथ्य साधना से सम्पन्न साधु में कहाँ और कितना अतथ्य और तथ्य प्रविष्ट हो सकता है ? परिणाम सहित ये दोनों चित्र बहुत ही सुन्दर ढंग से शास्त्रकार द्वारा प्रस्तुत किये गए हैं। उच्च साधु : परन्तु अतथ्य का प्रवेश-(१) एक साधु सर्वथा अकिञ्चन है, भिक्षान्न से निर्वाह करता है, भिक्षा में भी रूखा-सूखा आहार प्राप्त करके प्राण धारण करता है, इतना उच्चाचारी होते हुए भी यदि वह अपनी ऋद्धि (लब्धि या भक्तों के जमघट का ठाटबाट), रस और साता (सुख-सुविधा) का गर्व करता है, अपनी प्रशंसा और प्रसिद्धि की आकांक्षा करता है तो उपर्युक्त गुण अतथ्य हो जाते हैं / (2) एक साधु बहुभाषाविद् है, सुन्दर उपदेश देता है, प्रतिभा सम्पन्न है, शास्त्र विशारद है, सत्यग्राही प्रज्ञा से सम्पन्न है, धर्म-भावना से अन्तःकरण रंगा हुआ है, इतने गुणों से युक्त होने पर भी जो इन गुणों के मद For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org