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________________ पोण्डरीक : प्रथम अध्ययन : सूत्र 652-653 / [23 वा निरए ति वा अनिरए ति वा / एवं ते विरूवरूवेहि कम्मसमारंभेहि विरूवरूवाई काम भोगाई सभारंभंति भोयणाए। ६५१--इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को न मानने वाले तज्जीवतच्छरीरवादी लोकायतिक आदि स्वयं जीवों का (निःसंकोच) हनन करते हैं, तथा (दूसरों को भी उपदेश देते हैं)—इन जीवों को मारो, यह पृथिवी खोद डालो, यह वनस्पति काटो, इसे जला दो, इसे पकायो, इन्हें लट लो या इनका हरण कर लो, इन्हें काट दो या नष्ट कर दो, बिना सोचे विचारे सहसा कर डालो, इन्हें पीडित (हैरान) करो इत्यादि / इतना (शरीरमात्र) ही जीव है, (परलोकगामी कोई जीव नहीं होने से) परलोक नहीं है।" (इसलिए यथेष्ट सुख भोग करो।) वे शरीरात्मवादी आगे कही जाने वाली बातों को नहीं मानते जैसे कि सत्क्रिया या असत्क्रिया, सुकृत, या दुष्कृत, कल्याण (पुण्य) या पाप, भला या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरक या स्वर्ग, आदि / इस प्रकार वे शरीरात्मवादी अनेक प्रकार के कर्मसमारम्भ करके विविध प्रकार के काम-भोगों का सेवन (उपभोग) करते हैं अथवा विषयों का उपभोग करने के लिए विविध प्रकार के दुष्कृत्य करते हैं। ६५२-एवं पेगे पागभिया निक्खम्म मामगं धम्मं पण्णति तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा साधु सुयक्खाते समणे ति वा माहणे ति वा कानं खलु भाउसो ! तुमं पूययामो, तं जहाअसणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुछणेण वा, तत्थेगे पूयणाए समाउम्रिसु, तत्थेगे पूयणाए निगामइंसु / 652- इस प्रकार शरीर से भिन्न प्रात्मा न मानने की धृष्टता करने वाले कोई नास्तिक अपने मतानुसार प्रव्रज्या धारण करके 'मेरा ही धर्म सत्य है, ऐसी प्ररूपणा करते हैं / इस शरीरात्मवाद में श्रद्धा रखते हुए, उस पर प्रतीति करते हुए, उसमें रुचि रखते हुए कोई राजा प्रादि उस शरीरात्मवादी से कहते हैं—'हे श्रमण या ब्राह्मण ! आपने हमें यह तज्जीव-तच्छरीरवाद रूप उत्तम धर्म बता कर बहुत ही अच्छा किया, हे आयुष्मन् ! (आपने हमारा उद्धार कर दिया) अतः हम आपकी पूजा (सत्कार-सम्मान करते हैं, जैसे कि हम अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य अथवा, वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पाद-प्रोञ्छन आदि के द्वारा आपका सत्कार-सम्मान करते हैं।' यों कहते हुए कई राजा प्रादि उनकी पूजा में प्रवृत्त होते हैं, अथवा वे शरीरात्मवादी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त हो जाते हैं, और उन स्वमतस्वीकृत राजा आदि को अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अपने मत-सिद्धान्त में दृढ़ (पक्के या कट्टर) कर देते हैं / ६५३–पुवामेव तेसि णायं भवति- समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्तभोइणो भिक्खुणो पावं कम्मं णो करिस्सामो समुट्ठाए ते अप्पणा अप्पडिविरया भवंति, सयमाइयंति अन्ने वि प्रादियाति अन्नं पि प्रातियंतं समणुजाणंति, एवामेव ते इस्थिकामभोगेहि मच्छिया गिद्धा गढिता अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसत्ता, ते णो अप्पाणं समुच्छेदंति, नो परं समुच्छेदेति, नो अण्णाई पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समुच्छदेंति, पहीण। पुब्दसंयोग, प्रायरियं मग्गं असंपत्ता, इति ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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