________________ परिशिष्ट 3 स्मरणीय सुभाषित गाथा संख्या . सुभाषित 65 ममाती लुप्पती बाले अन्नमन्नेहिं मुच्छिए। अप्पणो य परंणालं कुतो अण्णेऽणु सासिउं? .. जहा आसावि िण णावं जाति अंधो दुरूहिया / इच्छेज्जा पारमागंतु अंतरा य विसीयति // एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ट्ठी अणारिया / संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियटति / / . समुप्पायमयाणंता किह नाहिति संवरं // एवं ख णाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं / अहिंसासमयं चेव इत्तावतं विजाणिया / संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च दुल्लभा / णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं / / पुरिसोरम पाव कम्मुणा / अहऽसेयकरी अन्नेसि इंखिणी। जो परिभवती परं जणं, संसारे परियत्तती महं / अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी ण मज्जती / / पणसमत्त सदा जए, समिया धम्ममुदाहरे मुणी। महयं पलिगोब जाणिया, जा वि य वंदण पूयणा इहं / सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे, विदुमं ता पयहिज्ज संथवं // सामाइयमाह तस्सं जं, जो अप्पाण भए ण दसए। अहिगरणं न करेज्ज पंडिए। न य संखयमाहु जीवियं तह वि य बालजणे पगम्भती।. जे विष्णवणाहिऽझोसिया, संतिण्णेहि समं वियाहिया / कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्धे कण्हई। 111 112 121 127 126 131 144 148 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org