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________________ 186 प्रथम उद्देशक : गाथा 172 चूर्णिकार ने 'कम्मता दुब्भगा चेव'-पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-कृषि-पशु-पालनादि कर्मों का अन्तविनाश हो जाने, छूट जाने से ये आप्त-अभिभूत (पीड़ित) हैं और दुर्भागी हैं। पुढोजणा-पृथक्जन= प्राकृत (सामान्य) लोग / अचार्यता-सहन करने में अशक्त / " वध-परीषह रूप उपसर्ग 172. अप्पेगे झुझियं भिक्खुसुणी वसति लसए। तत्थ मंदा विसीयंति तेजपुट्ठा व पाणिणो / / 8 / / 172. (भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए) क्षुधात भिक्षु को यदि प्रकृति से क्र र कुत्ता आदि प्राणी काटने लगता है, तो उस समय अल्पसत्व विवेक मूढ़ साधु इस प्रकार दुःखो (दोन) हो जाते हैं, जैसे अग्नि का स्पर्श होने पर प्राणी (वेदना से) आत्तध्यानयुक्त हो जाते हैं। विवेचन-वधपरीषह के रूप में उपसर्ग आने पर-प्रस्तुत सूत्र में वधपरीषह के रूप उपसर्ग का वर्णन और उस मौके पर कायर साधक की मनोदशा का चित्रण किया है। अप्पेगे झुनियंतेजपुट्ठा व पाणिणो–प्रस्तुत गाथा का आशय यह है कि एक तो बेचारा साधु भूख से व्याकुल होता है, उस पर भिक्षाटन करते समय कुत्ते आदि प्रकृति से क्रूर प्राणी उसकी विचित्र वेष-भूषा देखकर भोंकने, उस पर झपटने या काटने लगते हैं, दाँतों से उसके अंगों को नोंच डालते हैं, ऐसे समय में नवदीक्षित या साधु संस्था में नवप्रविष्ट परीषह एवं उपसर्ग से अपरिचित अल्पसत्व साधक घबरा जाते हैं / वे उसी तरह बेदना से कराहते हैं, तथा आर्तध्यान करते हैं, जैसे आग से जल जाने पर प्राणी आर्तनाद करते हुए अंग पकड़ या सिकोड़ कर बैठ जाते हैं। वे कदाचित् संयम से प्रष्ट भी हो जाते हैं। कठिन शब्दों का अर्थ-अप्पेगे-'अपि' शब्द सम्भावना अर्थ में हैं। 'एगे' का अर्थ है-कई / आशय हैकई साधु ऐसे भी हो सकते हैं / 'खुधियं- इसके दो और पाठान्तर हैं--खुज्झितं और झुझियं-तीनों का अर्थ है क्षुधित--भूखा, क्षुधात साधक / सुणी दसति लूसए प्रकृति से क्रूर कुत्ता आदि प्राणी काटने लगता है। तेजपुट्ठा:-तेज-अग्नि से स्पृष्ट--जला हुआ।२ 10 (क) कम्मंता-कृषी पशुपाल्यादिभिः कर्मान्तः आप्ताः अभिभूता इत्यर्थः।-सूयगडंग चूणि पृ० 31 (ख) पुढो जणा-पृथक् जनाः, प्राकृत पुरुषाः, अनार्यकल्पाः / 11 (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक 80-81 के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 412 12 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 80-81 (ख) सूयगडंग मूल तथा टिप्पणयुक्त (जम्बूविजय जी सम्पादित) पृ० 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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