________________ सूत्रकृतांग-पन्द्रहर्वा अध्ययन-जमतीत क्योंकि मिथ्या भाषण के कारण हैं-रागादि; वे तीर्थंकर देव में बिलकुल नहीं हैं। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने आगमों में यत्र-तत्र जो भी प्रतिपादन किया है, वह सब सत्य (प्राणियों के लिए हितकर) है, सुभाषित है। सर्वोक्त उपदेश भी हितषिता से परिपूर्ण-सर्वज्ञ तीर्थंकर सर्वहितैषी होते हैं, उनका वचन भी सर्वहितैषिता से पूर्ण होता है / उनका कोई भी कथन प्राणिहित के विरुद्ध नहीं होता। इसके प्रमाण के रूप में उनके द्वारा कथित सर्वभूत मैत्री भावना तथा अन्य (बारह या पच्चीस) जीवित भावना और उनको संसार-सागरतारिणी महिमा तथा उनसे मोक्ष-प्राप्ति आदि हैं / मैत्री आदि भावनाओं की साधना के लिए प्राणियों के साथ वैर-विरोध न करना, समग्र प्राणिजगत् का स्वरूप (सुखाभिलाषिता, जो वितप्रियता आदि) जानकर मोक्षकारिणी या जीवनसमाधिकारिणी भावना आदि के सम्बन्ध में दिया गया उपदेश प्रस्तुत है। विमुक्त, मोक्षाभिमुख और संसारान्तकर साधक कौन? 612 तिउति तु मेधावी, जाणं लोगसि पावगं / तिउति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुब्वमओ // 6 // 613 अकुव्वतो गवं नत्यि, कम्मं नाम विजाणइ। विन्नाय से महावीरे, जेण जाति ण मिज्जती // 7 // 614 न मिज्जति महावीरे, जस्स नत्थि पुरेकडं / वाऊ व जालमच्चेति, पिया लोगंसि इथिओ // 8 // 615 इथिओ जे ण सेवंति, आदिमोक्खा हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का, नावकखंति जीवितं // 6 616 जीवितं पिट्ठतो किच्छा, अंतं पावंति कम्मणा। कम्मुणा संमुहीभूया, जे मग्गणसासति // 10 // 2 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 254 (ख) वीतरागा हि सर्वज्ञाः, मिथ्या न ब्रुवते वचः। यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थ दर्शनम् // 3 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 255-256 (ख) द्वादशानुप्रेक्षा (भावना) इस प्रकार हैं-अनित्याशरण-संसारैकत्वाशुचित्वासव-संवर-निर्जरा-लोक बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यात-स्वतत्त्वचिन्तनमनुप्रेक्षा:।--तत्त्वार्थसूत्र, अ०६, सूत्र 7 (ग) पांच महाव्रतों की 25 भावनाएँ हैं, जिनका विवरण पहले प्रस्तुत किया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org