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________________ 140 सूत्रकृताग--द्वितीय अध्ययन-वैतालीय अयतनापूर्वक फेंकने से प्राणियों की हिंसा होती है, (3) गृहस्थ के कांसे आदि के बर्तनों में भोजन करने वाला श्रमण आचारभ्रष्ट हो जाता है। यही कारण है कि गृहस्थ के बर्तन में भोजन आदि करने से समत्वयोग भंग होता है। इति संखाय मुणी ण भज्जती-जीवन को क्षणभंगुर जानकर भी धृष्टतापूर्वक बेखटके पापकर्म में प्रवत्त होने वाल पापोजनो को जान-देखकर तत्त्वज्ञ मनि किसी प्रका नि किसी प्रकार का मद-घमण्ड नहीं करता। इसका अर्थ वृत्तिकार ने किया है- ऐसी स्थिति में मुनि के लिए ऐसा मद करना (अभिमान या घमण्ड करना) पाप है कि इन बुरे कार्य करने वालों में मैं ही सत्कार्य करने वाला हूँ, मैं ही धर्मात्मा हूँ, अमुक मनुष्य तो पापी है, मैं उच्च क्रियापात्र हूँ, ये सब तो शिथिलाचारी हैं / असन्ध्येय-असंस्कृत जिन्दगी में मानव किस बूते पर अभिमान कर सकता है ?' अथवा इस पंक्ति का आशय यह भी हो सकता है-आयुष्य के क्षण नष्ट होते ही जीवन समाप्त हो जाता है, किसी का भी जीवन स्थायी और आयुष्य के टूटने पर जुड़ने वाला नहीं है, फिर कोई भी तत्त्वज्ञ विचारशील मुनि अपने पद, ज्ञान, विद्वत्ता, वक्तृत्वकला, तपश्चरणशक्ति, या अन्य किसी लब्धिउपलब्धि या योग्यता विशेष का मद (अभिमान) कैसे कर सकता है ? "छंदेण पले इमा पया'"वियडेण पलेंति माहणे" इस पंक्ति का आशय यह है कि अज्ञ-प्रजाजन अपनेअपने स्वच्छन्द आचार-विचार के कारण, तथा मायाप्रधान आचार के कारण मोह मे –मोहनीय कर्म से आवृत्त होकर नरकादि गतियों में जाते हैं / स्वत्वमोह से उनकी बुद्धि आवृत्त हो जाने से वे लोग 'अग्निष्टोमीयं पशुमालभेत' इत्यादि श्रुति वाक्यों को प्रमाण रूप में प्रस्तुत करके देवी-देवों के नाम से या धर्म के नाम से बकरे, मुर्गे आदि पशु-पक्षियों की बलि करते हैं। इसे वे यज्ञ-अभीष्ट कल्याण साधक मानते हैं। कई विभिन्न यज्ञों में अश्व, गौ, मनुष्य आदि को होमने का विधान करते हैं। कई मोहमूढ़ लोग अपने धर्मसंघ, आश्रम, मन्दिर, संस्था या जाति आदि की रक्षा के नाम पर दासी-दास अथवा पशु तथा धनधान्य आदि का परिग्रह करते हैं। भोले-भाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने हेतु तथा क्रियाकाण्डों का सब्जबाग दिखाकर उनसे धन-साधन आदि बटोरने-ठगने के लिए बाह्य शौच को धर्म बताकर शरीर पर बार-बार पानी छींटने. स्थान को बार-बार धोने, बर्तनों को बार-बार रगडने तथा कान का स्पर्श करने आदि माया प्रधान वंचनात्मक प्रवृत्ति करते हैं, और उसी का समर्थन करते हुए वे कहते हैं 23 (क) सूत्रकृतांग शोलांकवृत्ति पत्रांक 66 (ख) तुलना कीजिए-कंसेसु कंसपाएसु कुण्डमोएसु वा पुणी / भूतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ / / सीओदगसमारंभे, मत्तधोयण-छड्डणे / जाई छन्नति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो / पच्छाकम्मं पुरेकम्म सिया तत्थ न कपई। एयमठं न भुजति निम्गंथा गिहिभायणे / -दसवेआलियं (मुनि नथमलजी) अ०६ गा० 50, 51, 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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