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________________ 162 सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिक्षा / प्रस्तुत अध्ययन के में चार तथ्यों का सांगोपांग निरुपण किया गया है--- (1) कैसे-कैसे उपसर्ग किस-किस रूप में आते हैं। (2) उन उपसर्गों को सहने में क्या-क्या पीड़ा होती है, (3) उपसर्गों से सावधान न रहने या उनके सामने झुक जाने से कैसे संयम का विघात होता है ? (4) उपसर्गों के प्राप्त होने पर साधक को क्या करना चाहिए ? प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं-प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन हैं / द्वितीय उद्देशक में स्वजन आदिकृत अनुकूल उपसगों का निरूपण है / तृतीय उद्देशक में आत्मा में विषाद पैदा करने वाले अन्यतीथिकों के तीक्ष्णवचन रूप उपसर्गों का विवेचन है और चतुर्थ उद्देशक में अन्यतीर्थिकों के हेतु सदृश प्रतीत होने वाले हेत्वाभासों से वस्तुस्वरूप को विपरीत रूप में ग्रहण करने से चित्त को विभ्रान्त एवं मोहित करके जीवन को आचार भ्रष्ट करने वाले उपसर्गों का तथा उन उपसर्गों के समय स्वसिद्धान्त प्रसिद्ध मुक्ति संगत हेतुओं द्वारा यथार्थ बोध देकर संयम में स्थिर रहने का उपदेश है। चारों उद्देशकों में क्रमशः 17, 22, 21 और 22 गाथाएँ हैं। - इस अध्ययन की सूत्र गाथा संख्या 165 से प्रारम्भ होकर गाथा 246 पर समाप्त है। LOD (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक 78 (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० 402 5 (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० 46, 50 (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक 78 (ग) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1, पृ० 142, 143, 144 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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