SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 386 सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग शान्त होने से श्रेयस्कर), (11) निवृत्ति (संसार से निवृत्ति का कारण), (12) निर्वाण (चार घातिकर्मक्षय होकर केवल ज्ञान प्राप्त होने से), और (13) शिव (शैलेशी अवस्था प्राप्तिरूप १४वें गुणस्थान के अन्त में मोक्षपदप्रापक) 12 / नियुक्तिकार ने भावमार्ग की मार्ग के साथ तुलना करते हुए 4 भंग (विकल्प) बताए है। क्षेम, अक्षेम, क्षेमरूप और अक्षेमरूप / जिस मार्ग में चोर, सिंह, व्याघ्र आदि का उपद्रव न हो, वह क्षेम तथा जो मार्ग कांटे, कंकड़, गडढे, पहाड, ऊबड़खाबड़ पगडंडी आदि से रहित, सम तथा, वृक्ष फल, फल. जलाशय आदि से यक्त हो वह क्षेमरूप होता है। इससे विपरीत क्रमश: अक्षम और अक्षेमरूप होता है। इसकी चतुभंगी इस प्रकार है-१ कोई मार्ग क्षेम और क्षेमरूप, 3. कोई मार्ग क्षेम है, क्षेमरूप नहीं, 3. कोई मार्ग क्षेम नहीं, किन्तु क्षेमरूप है, और 4. कोई मार्ग न तो क्षेम होता है, न क्षेमरूप होता है / इसी प्रकार प्रशस्त-अप्रशस्त भावमार्ग पर चलने वाले पथिक की दृष्टि से भी क्षेम, क्षेमरूप आदि 4 विकल्प (भंग) होते हैं--(१) जो संयमपथिक सम्यग्ज्ञानादि मार्ग से युक्त (क्षेम) तथा द्रव्यलिंग (साधूवेष) से भी युक्त (क्षेमरूप) है, (2) जो ज्ञानादि मार्ग से तो युक्त (क्षेम) हैं, किन्तु द्रालगयुक्त (क्षेमरूप) नहीं, (3) तृतीय भंग में निह्नव है, जो अक्षेम किन्तु क्षेमरूप और (4) चतुर्थ भंग में अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ हैं, जो अक्षेम और अक्षेमरूप हैं। साधु को क्षेम और क्षेम हम मार्ग का ही अनुयायी होना चाहिए। - प्रस्तुत अध्ययन में आहारशुद्धि, सदाचार, संयम, प्राणातिपात-विरमण आदि का प्रशस्त भावमार्ग के रूप में विवेचन है तथा दुर्गतिदायक अप्रशस्तमार्ग के प्ररूपक प्रावादकों (क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादो एवं अज्ञानवादी कुल 363) से बचकर रहने तथा प्राणप्रण से मोक्षमार्ग पर दृढ़ रहने का निर्देश है / दानादि कुछ प्रवृत्तियों के विषय में प्रत्यक्ष पूछे जाने पर श्रमण को न तो उनका समर्थन (प्रशंसा) करना चाहिए और न ही निषेध / दसवें अध्ययन में निरूपित भाव समाधि का वर्णन इस अध्ययन में वर्णित भावमार्ग से मिलता-जुलता है। - दुर्गति-फलदायक अप्रशस्त भावमार्ग से बचाना और सुगति फलदायक प्रशस्त भावमार्ग की ओर साधक को मोड़ना इस अध्ययन का उद्देश्य है। 0 उद्देशकरहित इस अध्ययन की गाथा संख्या 38 है। 0 प्रस्तुत अध्ययन सूत्रगाथा संख्या 467 से प्रारम्भ होकर सू० गा० 534 पर पूर्ण होता है। 2 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 112 से 115 तक (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 197 3 (क) सूत्र कृ० नियुक्ति गा० 111 (ख) सूत्र कृ० शी० वृत्ति पत्रांक 166 4 (क) सूयगडंगसुत्त (मूलपाठ टिपण) पृ० 60 से६५ तक का सारांश (ख) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० 1 पृ० 151 5 सूत्रकृतांग शीलांक वत्ति पत्रांक 166 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy