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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा 18 से 100 121 (3) यतनापूर्वक समिति-गुप्तियुक्त होकर प्रवृत्ति करने से पापकर्मबन्ध नहीं होता। (4) जो हिंसादि पापों तथा क्रोधादि कषायों से विरत होकर संयम में उद्यत हैं, वे मुक्त आत्मा के समान शान्त एवं सुखी हैं / पाप कर्म क्या है, कैसे बंधने-छूटते हैं ? -बहुत से साधक साधु-जीवन को तो स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु पाप-पुण्य का सम्यक् परिज्ञान उन्हें नहीं होता, न ही वे यह जानते हैं कि पापकर्म कैसे-कैसे बँध जाते हैं ? और कैसे उन पापकर्मों से छुटकारा हो सकता है ? प्रस्तुत त्रिसूत्री में भगवान् ऋषभदेव ने समस्त कर्म-विदारण वीर तीर्थंकरों द्वारा उपादिष्ट पापकर्म विषयक परिज्ञान दिया है। पापकर्म वे हैं. जो आत्मा को नीचे गिरा देते हैं, उसकी शुद्धता, स्वाभाविकता और निर्मलता पर अज्ञान, मोह आदि का गाढ़ आवरण डाल देते हैं, जिससे आत्मा ऊर्ध्वगमन नहीं कर पाता, विकास नहीं कर पाता। पापकर्मों के कारण ही तो प्राणी को सम्यक् धर्ममार्ग नहीं मिल पाता और बार-बार मोह एवं अज्ञान के कारण पाप में अधिकाकिध वृद्धि करके नरक, तिर्यंच आदि दुःख प्रदायक गतियों में भटकता रहता है। इसीलिए गाथा 68 में स्पष्ट कहा गया है-'पुरिसोरम पावकम्मुणा'। इसका आशय यह है कि अब तक तुम अज्ञानदिवश पापकर्मों में बार-बार फँसते रहे, जन्म-मरण करते रहे, किन्तु अब इस पापकर्म से विरत हो जाओ। इस कार्य में शीघ्रता इसलिए करनी है कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है, वह नाशवान है / जो मनुष्य इस शरीरादि जीवन को, मोह में पड़कर इसे विषय-भोगों में नष्ट कर देते हैं, विविध हिमादि पाप करके शरीर को पोषते रहते हैं, तप-संयम के कष्ट से कतराते हैं, वे मोहनीय प्रमुख अनेक पापकर्मों का संचय कर लेते हैं, उनका फल भोगते समय फिर मोहावृत हो जाते हैं। इसलिए सद्धर्माचरण एवं तप-संयम द्वारा पापकर्म से शीघ्र विरत हो जाना चाहिए। प्रश्न होता है-पापकर्म तो प्रत्येक प्रवृत्ति में होना सम्भव है, इससे कैसे बचा जाय ? इसके लिए 66 गाथा में कहा गया- 'जययं विहराहि...."पवेइयं / अर्थात् प्रत्येक प्रवृत्ति यतनापूर्वक करने से पापकर्म का बन्ध नहीं होता। दशवकालिक आदि शास्त्रों में यही उपाय पापकर्मबन्ध से बचने का बताया है। आचारांग आदि शास्त्रों में यत्रतत्र पापकर्म से बचने की विधि बतायी गयी है। पांच समिति, तीनगुप्ति, पंचमहाव्रत, दशयतिधर्म आदि सब पापकर्म से बचने के शास्त्रोक्त एवं जिनोक्त उपाय हैं / पापकर्म का बन्ध प्रमत्त योग से, कषाय से, हिंसादि में प्रवृत्त होने से होता है / पापकर्म से विरत साधक कैसा होता है, उसकी क्या पहिचान है ? इसके लिए गाथा 100 में स्पष्ट बताया है-(१) वे हिंसा आदि पापों से निवृत्त होते हैं, (2) कर्मक्षय करने के अवसर पर वीरवृत्ति धारण कर लेते हैं, (3) संयमपालन में उद्यत होते हैं, (4) क्रोधादि कषायों को पास नहीं फटकने देते, (5) मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से प्राणिहिंसा नहीं करते, (6) पापकर्मबन्ध होने के कारणों (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग, से दूर रहते हैं, (7) ऐसे साधक मुक्त जीवों के समान शान्त होते हैं। 16 सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्र 56 के आधार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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