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________________ 14 ] [ सूत्रकृतांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध इसी कारण ये लोग यों समझने लगे कि 'हम लोग इस श्रेष्ठ श्वेतकमल को निकाल कर ले जाएँगे, परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस प्रकार नहीं निकाला जा सकता, जैसा कि ये लोग समझते हैं।" ___ "मैं निर्दोष भिक्षाजीवो साधु हूँ, राग-द्वेष से रहित (रूक्ष = निःस्पृह) हूँ। मैं संसार सागर के पार (तीर पर) जाने का इच्छुक हूँ, क्षेत्रज्ञ (खेदज्ञ) हूँ यावत् जिस मार्ग से चल कर साधक अपने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए पराक्रम करता है, उसका विशेषज्ञ हूँ। मैं इस उत्तम श्वेतकमल को (पुष्करिणी से बाहर) निकालगा, इसी अभिप्राय से यहाँ पाया हूँ।" यों कह कर वह साधु उस पुष्करिणी के भीतर प्रवेश नहीं करता, वह उस (पुष्करिणी) के तट पर खड़ा-खड़ा ही अावाज देता है- "हे उत्तम श्वेतकमल ! वहाँ से उठकर (मेरे पास) आ जाओ, आ जाओ! यों कहने के पश्चात् वह उत्तम पुण्डरीक उस पुष्करिणी से उठकर (या बाहर निकल कर) आ जाता है। विवेचन-उत्तम श्वेतकमल को पाने में सफल : निःस्पृह भिक्षु-प्रस्तुत सूत्र में पूर्वोक्त चारों विफल व्यक्तियों की चेष्टाओं और मनोभावों का वर्णन करने के पश्चात् पांचवें सफल व्यक्ति का वर्णन किया गया है। पूर्वोक्त चारों पुरुषों के द्वारा पूष्करिणी एवं उसके मध्य में स्थित उत्तम पुण्डरीक को देखने और पांचवें इस राग-द्वेषरहित निःस्पृह भिक्षु को देखने में दृष्टिकोण का अन्तर है। पूर्वोक्त चारों व्यक्ति राग, द्वेष, मोह और स्वार्थ से आक्रान्त थे, अहंकारग्रस्त थे, जब कि निःस्पृह भिक्षु राग-द्वेष मोह से दूर है / न इसके मन में स्वार्थ, पक्षपात, लगाव या अहंकार है, न किसी से घृणा और ईर्ष्या है। प्रश्न होता है—शास्त्रकार ने उन चारों पुरुषों की परस्पर निन्दा एवं स्वप्रशंसा की तुच्छ प्रकृति का जिन शब्दों में वर्णन किया है, उन्हीं शब्दों में इस पांचवें साधु-पुरुष का वर्णन किया है, फिर उनमें और इस भिक्षु में क्या अन्तर रहा ? पांचों के लिए एक-असरीखी वाक्यावली प्रयुक्त करने से तो ये समान प्रकृति के मानव प्रतीत होते हैं, केवल उनके और इस भिक्षु के प्रयासों और उसके परिणाम में अन्तर है। इसका युक्तियुक्त समाधान भिक्षु के लिए प्रयुक्त 'लहे (राग-द्वेष-रहित) 'तीरट्ठी' आदि विशेषणों से ध्वनित हो जाता है। जो साधु राग, द्वेष, मोह, स्वार्थ आदि विकारों से दूर है और संसार किनारा पाने का इच्छुक है, उसकी दृष्टि और चेष्टा में एवं रागादिविकारग्रस्त लोगों की दृष्टि और चेष्टा में रातदिन का अन्तर होगा, यह स्वाभाविक है। इसलिए भले ही इस भिक्षु के लिए पूर्वोक्त चारों असफल पुरुषों के समान वाक्यावली का प्रयोग किया गया है परन्तु इसकी दृष्टि और भावना में पर्याप्त अन्तर है। रागीन्द्रषी के जिन शब्दों में दूसरे के प्रति तिरस्कार और अवहेलना छिपी होती है, वीतराग के उन्हीं शब्दों से करुणा का विमल स्रोत प्रवाहित होता है / वीतराग साधु श्वेतकमल के बाह्य सौन्दर्य के नहीं, आन्तरिक सौन्दर्य के दर्शन करता है, साथ ही अपनी शुद्ध निर्विकार अनन्त ज्ञानादि गुण युक्त प्रात्मा से तुलना करता है। तदनन्तर वह उन चारों असफल व्यक्तियों पर दृष्टिपात करता है, उन पर वह तटस्थ दृष्टि से समभावपूर्वक चिन्तन करता है, मन ही मन उनके प्रति दयाभाव से प्रेरित होकर कहता है-'बेचारे ये अज्ञान पुरुष इस उत्तम श्वेतकमल को तो पा नहीं सके और इस पुष्करिणी के तट से बहुत दूर हट कर बीच में ही गाढ़ कीचड़ में फंस कर रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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