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________________ सूत्रकृतांग-अष्टम अध्ययन-वीर्य अपने-अपने (विविध) स्थानों को छोड़ दंगे। ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों के साथ जो संवास है, वह भी अनियत-अनित्य है।" 423. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से विचार करके मेधावी साधक इन सबके प्रति अपनी गृद्धि (आसक्ति) हटा दे तथा समस्त (अन्य) धर्मों से अदूषित (अकोपित) आर्यो (तीर्थंकरों) के इस सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रात्मक मोक्षमार्ग को स्वीकार (आश्रय) करे / 424. सन्मति (निर्मल बुद्धि) से धर्म के सार (परमार्थतत्त्व) को जानकर अथवा सुनकर धर्म के सार भूत चारित्र के या आत्मा के ज्ञानादि निज गुणों के उपार्जन में उद्यत अनगार (पण्डितवीयं-सम्पन्न व कर्मक्षय के लिए कटिबद्ध साधक) पाप (-युक्त अनुष्ठान) का त्याग कर देता है / 42. पण्डित (वीर्य सम्पन्न) साधु यदि किसी प्रकार अपनी आयु का उपक्रम (क्षय-कारण) जाने तो उस उपक्रमकाल के अन्दर (पहले से) ही शीघ्र संलेखना रूप या भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण आदि रूप पण्डितमरण की शिक्षा का प्रशिक्षण ले-ग्रहण करे। 426. जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में छिपा लेता है, इसी प्रकार से मेधावी (मर्यादावान् पण्डित) पापों (पापरूप कार्यों) को अध्यात्म (सम्यग् धर्मध्यानादि की) भावना से समेट ले (संकुचित कर दे। 427. पादपोपगमन, इंगितमरण या भक्त परिज्ञादि रूप अनशन काल या अन्तकाल में पण्डित साधक कछुए की तरह अपने हाथ-पैरों को समेट ले (समस्त व्यापारों से रोक ले), मन को अकुशल (बुरे) संकल्पों से रोके, इन्द्रियों को (अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में रागद्वेष छोड़कर) संकुचित कर ले। (इहलोक-परलोक में सुख प्राप्ति को कामना रूप) पापमय परिणाम का तथा वैसे (पापरूप) भाषा-दोष का त्याग करे। 428. पण्डित साधक थोड़ा-सा भी अभिमान और माया न करे। मान और माया का अनिष्ट फल जानकर सद्-असद्-विवेकी साधक साता (सुख सुविधाप्राप्ति के) गौरव (अहंकार) में उद्यत न हो तथा उपशान्त एवं निःस्पृह अथवा माया रहित (अनिह) होकर विचरण करे / 426. वह प्राणियों का घात न करे तथा अदत्त (बिना दिया हुआ पदार्थ) भी ग्रहण न करे एवं माया-मृषावाद न करे, यही जितेन्द्रिय (वश्य) साधक का धर्म है। 430. प्राणियों के प्राणों का अतिक्रम (पीड़न) (काया से करना तो दूर रहा) वाणी से भी न करे, तथा मन से भी न चाहे तथा बाहर और भीतर सब ओर से संवत (गुप्त) होकर रहे, एवं इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु आदान (मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादि रूप संयम) की तत्परता के साथ समाराधना करे। सूत्रगाथा 421 के उत्तरार्द्ध एवं 422 में धर्मध्यानारोहण में अबलम्बन के लिए क्रमशः संसार (संसारदुःख स्वरूप की) अनुप्रेक्षा, और अनित्यानुप्रेक्षा विहित है / 422 वी गाथा में पठित दो 'य'कार से अशरण आदि शेष अनुप्रक्षाओं का आलम्बन सूचित किया गया है / -सूत्र० कृ० शी वृत्ति पत्रांक 170-171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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