SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाया 473 से 467 376 बनाने) की अपेक्षा न रखता हुआ साधु (तपस्या से कृश हुए) शरीर का शोक (चिन्ता) छोड़कर संयम में पराकम करे। 484. साधु एकत्व भावना का अध्यवसाय करे / ऐसा करने से वह संग से मुक्त होता है, फिर उसे कर्मपाश (या संसार बन्धन) नहीं छूते। यह (एकत्वभावनारूप) संगत-मुक्ति मिथ्या नहीं, सत्य है, और श्रेष्ठ भी है / जो साधु क्रोध रहित, सत्य में रत एवं तपस्वी है; (वही समाधिभाव को प्राप्त है।) 485. जो साधक स्त्री विषयक मैथुन से निवृत्त है, जो परिग्रह नहीं करता, एवं नाना प्रकार के विषयों में राग-द्वेषरहित होकर आत्मरक्षा या प्राणिरक्षा करता है, नि:सन्देह वह भिक्षु समाधि प्राप्त है। 486. (समाधिकामी) साधु संयम में अरति (खेद) और असंयम में रति (रुचि) को जीतकर तृणादि स्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श और दंश-मशक-स्पर्श (परीषह) को (अक्षुब्ध होकर समभाव से) सहन करे, तथा सुगन्ध-दुर्गन्ध (एवं आकोश, वध आदि परीषहों को भी (समभाव से राग-द्वष रहित होकर) सहन करे। 487. जो साधु वचन से गुप्त (मौनव्रती या धर्मयुक्त भाषी) रहता है, वह भाव समाधि को प्राप्त है (ऐसा समाधिस्थ) सा (अशुद्ध कृष्णादि लेश्याओं को छोड़कर) शुद्ध तेजस आदि लेश्याओं को ग्रहण करके संयम पालन में पराक्रम करे तथा स्वयं घर को न छाए, न ही दूसरों से छवाए, (न ही गृहादि को संस्कारित करे।) एवं प्रत्नजित साधु पचन-पाचन आदि गृह कार्यों को लेकर गृहस्थों से, विशेषतः स्त्रियों से मेलजोल (सम्पर्क या मिश्रभाव) न करे। विवेचन--समाधि प्राप्त साधु की साधना के मल मन्त्र-मोक्षदायक समाधि प्राप्त करने की साधना के लिए प्रस्तुत 15 सूत्र गाथाओं में से निम्नलिखित मूल मन्त्र फलित होते हैं ---(1) समाधि प्राप्ति के लिए साध को अप्रतिज्ञ (इह-परलोक सम्वन्धी फलाकांक्षा से रहित) तथा अनिदान (विषय-सुख प्राप्ति रूप निदान से रहित) होकर शुद्ध संयम में पराक्रम करे, (2) सर्वत्र सर्वदा त्रस-स्थावर प्राणियों पर संयम रखे, उन्हें पीड़ा न पहुंचाए, (3) अदत्तादान से दूर रहे, (4) वीतराग प्ररूपित श्रुत-चारित्र रूप धर्म में संशयरहित हो। (5) प्रासुक आहार-पानी एवं एषणीय उपकरणादि से अपना जीवन निर्वाह करे, (6) समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करे, (7) चिरकाल तक जीने की आकांक्षा से न तो आय करे, न ही पदार्थों का संचय करे, (8) स्त्रियों से सम्बद्ध पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त होने से अपनी इन्द्रियों को रोके, जितेन्द्रिय बने, (E) बाह्य-आभ्यन्तर सभी सम्बन्धों से मुक्त होकर संयम में विचरण करे, (10) पथ्वीकायिकादि प्राणियों को दुःख से आर्त और आतध्यान से संतप्त देखे, (11) पृथ्वीकायादि प्राणियों को छेदन-भेदन एवं उत्पीड़न आदि से काट पहुंचाने वाले जीवों को उनके पापकर्म के फलस्वरूप उन्हीं योनियों में बार-बार जन्म लेकर पीड़ित होना पड़ता है, प्राणातिपात से ज्ञानावरणीयादि पापकर्मों का बन्ध होता है / अतः समाधिकामी साधु इनसे दूर रहे। (12) तीर्थंकरों ने भाव समाधि का उपदेश इसी उद्देश्य से दिया है कि साधक न तो दीनवृत्ति से भोजन प्राप्त करे न ही असन्तुष्ट होकर; क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में अशुभ (पाप) कर्म बँधता है। (13) भावसमाधि के लिए साधक तत्त्वज्ञ, स्थिरबुद्धि विवेकरत एवं प्राणातिपात आदि से विरत हो, (14) समाधि प्राप्ति के लिए साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे, रागभाव अथवा द्वेषभाव से प्रेरित होकर न तो किसी का प्रिय बने, न ही किसी का अप्रिय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003470
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages847
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy