________________
एकोनपश्चाशत्तम पर्व अथ मौनव्रतेनार्य छमस्थोऽब्देषु शुद्धधीः । द्विसप्तसु गते दीक्षावने शालतरोरधः ॥४०॥ जन्मः कार्तिके कृष्णचतुर्थ्यामपराहगः। षष्ठोपवासो हत्वाधान् पापानन्तचतुष्टयम् ॥ ४१ ॥ कल्पामरैः सम सर्वैस्त्रिविधैज्यौतिषादिभिः । व्यधात् कैवल्यकल्याणं तदैवैत्यामराधिपाः ॥ ४२ ॥ पञ्चोत्तरशतोद्दिष्टैर्गणेशैः परिवारितः । चारुषेणादिभिः सोऽभाद् गिरीन्द्रो गिरिभिर्यथा ॥ ४३ ॥ शुन्यपञ्चैकपक्षोक्तचारुपूर्वधरावृतः । १शून्यद्वयनिरन्ध्रद्वयकोक्तशिक्षकलक्षितः॥४४॥ शून्यद्वितयषडरन्ध्रमितावधिविलोचनः । शून्यत्रयेन्द्रियैकोक्तकेवलावगमान्वितः ॥ ४५ ॥ शून्यद्वयाष्टरन्ध्र कज्ञातवैक्रियकानुगः । शून्यपञ्चैकपक्षकज्ञानतुर्यावबोधकः ॥ ४६॥ शून्यत्रितयपक्षकसङख्यावादिविभूषितः । पिण्डिताशेषदिग्वासो लक्षद्वयपरिष्कृतः॥४७॥ खचतुष्कद्विवह्नयुक्तधर्मार्याद्यार्यिकागणः । त्रिलक्षोपासकोपेतश्राविकापञ्चलक्षगः ॥ १८ ॥ असङ्ख्यदेवदेवीडयस्तिर्यक्सङख्यातसंस्तुतः। एवं द्वादशभेदोक्तधर्मभृगणनायकः ॥ ४९॥ चतुस्त्रिंशदतीशेपप्रातिहार्याष्टकप्रभुः । दिव्यवाग्ज्योत्स्नया कृत्स्नमाहाद्यानमितांशुमान् ॥ ५० ॥ शुद्ध एव चरन् पक्षे मोक्षलक्ष्या सहोद्गतः । निष्कलङ्को निरातङ्को निद्ध तारिः कुपक्षहत् ॥ ५१ ॥
मुनितारागणाकीर्णः कामद्वेषी महोष्मकृत् । सद्वृत्तः सर्वदा पूर्णः सदाभ्यर्णध्रुवोदयः ॥ ५२ ॥ अनेक रत्न चमक रहे हैं ऐसे पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ ३६ ।। इस प्रकार शुद्ध बुद्धिके धारक भगवान् संभवनाथ चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्थामें मौनसे रहे । तदनन्तर दीक्षावनमें पहुँचकर शाल्मली वृक्षके नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थीके दिन जन्मकालीन मृगशिर नक्षत्रमें शामके समय वेलाका नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए और चार घातिया कर्मरूपी पाप-प्रकृतियोंको नष्ट कर अनन्तचतुष्टयको प्राप्त हुए ॥४०-४१॥ उसी समय इन्होंने कल्पवासियों तथा ज्यौतिष्क आदि तीन प्रकारके देवोंके साथ कैवल्य महोत्सव किया-ज्ञानकल्याणक उत्सव किया ॥४२॥ जिस प्रकार छोटे-छोटे अन्य अनेक पर्वतोंसे घिरा हुआ सुमेरु पर्वत शोभित होता है उसी प्रकार चारुषेण आदि एक सौ पाँच गणधरोंसे घिरे हुए भगवान् संभवनाथ सुशोभित हो रहे थे ॥४३ ॥ वे दो हजार एक सौ पचास पूर्वधारियोंसे परिवृत थे, एक लाख उन्तीस हजार तीन सौ शिक्षकोंसे युक्त थे ॥४४॥ नौ हजार छह सौ अवधिज्ञानियोंसे सहित थे, पन्द्रह हजार केवलज्ञानियोंसे युक्त थे ।। ४५ ।। उन्नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धिके धारक उनके साथ थे, बारह हजार एक सौ पचास मनःपर्ययज्ञानी उनकी सभामें थे॥४६॥ तथा बारह हजार वादियोंसे सुशोभित थे, इस प्रकार वे सब मिलाकर दो लाख मुनियोंसे अत्यन्त शोभा पा रहे थे॥४७॥ धर्मार्याको आदि लेकर तीन लाख बीस हजार आर्यिकाएँ थी, तीन लाख श्रावक थे, पाँच लाख श्राविकाएं थीं, असंख्यात देव-देवियों और संख्यात तियेच्च उनकी स्तुति करते थे। इस प्रकार वे भगवान, धर्मको धारण करनेवाली बारह सभाओंके स्वामी थे॥४८-४६॥ वे चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्योंके प्रभु थे, दिव्यध्वनिरूपी चाँदनीके द्वारा सबको आह्लादित करते थे तथा नमस्कार करनेवालोंको सूर्यके समान प्रकाशित करते थे ॥ ५० ॥ भगवान् संभवनाथने चन्द्रमाको तिरस्कृत कर दिया था क्योंकि चन्द्रमा सुदी और वदी दोनों पक्षोंमें संचार करता है परन्तु भगवान् शुद्ध अर्थात् निर्दोष पक्ष में ही संचार करते थे, चन्द्रमा दिनमें लक्ष्मीहीन हो जाता है परन्तु भगवान् मोक्षलक्ष्मीसे सहित थे, चन्द्रमा कलङ्क सहित है परन्तु भगवान निष्कलङ्क-निष्पाप थे, चन्द्रमा सातङ्क-राहु आदिके आक्रमणके भयसे युक्त अथवा क्षय रोगसे सहित है परन्तु भगवान् निरातङ्क-निर्भय और नीरोग थे, चन्द्रमाके राहु तथा मेघ आदिके आवरणरूप अनेक शत्र हैं परन्तु भगवान शत्ररहित थे. चन्द्रमा कुपक्ष-कृष्ण पक्षको करनेवाला है परन्तु भगवान कुपक्ष-मलिन सिद्धान्तको नष्ट करनेवाले थे, चन्द्रमा दिनमें ताराओंसे रहित दिखता है परन्तु भगवान् सदा मुनि रूपी तारागणोंसे युक्त रहते थे, चन्द्रमा कामको बढ़ानेवाला है परन्तु भगवान् कामके शत्रु थे, चन्द्रमा तेजरहित है परन्तु भगवान महान तेजके धारक थे, चन्द्रमा पूर्णिमाके सिवाय अन्य तिथियोंमें वृत्ताकार न रहकर भिन्न-भिन्न आकारका धारक होता है परन्तु भगवान्
१ अन्यद्वय-ल।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org