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एकोनपञ्चाशत्तमं पर्व
अणिमादिगुणोपेतं पञ्चपुण्योदयार्पितम् । अहमिन्द्रसुखं श्रीमानन्वभूदमरोत्तमः ॥ १३ ॥ द्वीपेऽस्मिन् भारते वर्षे श्रावस्तिनगरेशिनः । राज्ञः काश्यपगोत्रस्य दृढराजस्य सद्युतेः ॥ १४ ॥ वल्लभेक्ष्वाकुवंशस्य सुषेणा तत्सुरागमे । षण्मासान् वसुधाराधि 'माहात्म्यपदवीं गता ॥ १५ ॥ शुक्लफाल्गुनजाष्टम्यां स्वमान् षोडश पञ्चमे । प्रभातसमयेऽपश्यनक्षत्रे सुकृतोदयात् ॥ १६॥ ततोऽनु वदनं तस्याः स्वमे प्राविशदग्रिमः 3 । गिरीन्द्रशिखराकारो वारणश्चारुलक्षणः ॥ १७ ॥ सा तेषां फलमाकर्ण्य स्वपतेर्मुदमागता । नवमे मासि नक्षत्रे पञ्चमे सौम्ययोगगे ॥ १८ ॥ पौर्णमास्यामवापार्च्यमहमिन्द्रं " त्रिविद्युतम् । स जन्मोत्सवकल्याणप्रान्ते सम्भव इत्यभूत् ॥ १९ ॥ सम्भवे तव लोकानां शं भवत्यय शम्भव । विनापि परिपाकेन तीर्थकृनामकर्मणः ॥ २० ॥ "तवाङ्गचूते प्रीणन्ति लक्षणव्यञ्जनोद्गमे । प्रलम्बबाहुविटपे सुरहग्भूमराश्विरम् ॥ २१ ॥ परतेजांसि ते तेजो भाति देव तिरोदधत् । मतानि कपिलादीनां स्याद्वादस्येव निर्मलम् ॥ २२ ॥ समस्ताह्लादकेनासीदामोदेनेव चन्दनः । बोधेन सहजातेन त्रिविधेन जगद्धितः ॥ २३ ॥ त्वां लोकः स्नेहसंवृद्धो निर्हेतुहितकारणम् । प्रदीपवन्नमत्येष निधानमिव भास्वरम् ॥ २४ ॥ इति स्तुत्वादिकल्पेशो विहितानन्दनाटकः । पित्रोस्तमर्पयित्वामा स्वर्लोकमगमत्सुरैः ॥ २५ ॥
वैक्रियिक शरीर आ जा सकता था ।। १०-१२ ।। इस प्रकार वह श्रीमान् उत्तम अहमिन्द्र अणिमा महिमा आदि गुणोंसे सहित तथा पाँच प्रकारके पुण्योदयसे प्राप्त होनेवाले अहमिन्द्रके सुखोंका अनुभव करता था ॥ १३ ॥
अथानन्तर इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें श्रावस्ती नगरीका राजा दृढ़राज्य था । वह इक्ष्वाकु - वंशी तथा काश्यपगोत्री था । उसके शरीरकी कान्ति बहुत ही उत्तम थी । सुषेणा उसकी स्त्रीका नाम था। जब पूर्वोक्त देवके अवतार लेनेमें छहमास बाकी रह गये तब सुषेणा रत्नवृष्टि आदि माहात्म्यको प्राप्त हुई । फाल्गुन शुक्ल अष्टमीके दिन प्रातःकालके समय मृगशिरा नक्षत्रमें पुण्योदयसे रानी सुषेणा ने सोलह स्वप्न देखे || १४- १६ ।। तदनन्तर स्वप्नमें ही उसने देखा कि सुमेरु पर्वतके शिखरके समान आकारवाला तथा सुन्दर लक्षणोंसे युक्त एक श्रेष्ठ हाथी उसके मुखमें प्रवेश कर रहा है || १७७ अपने पतिसे उन स्वप्नोंका फल सुनकर वह आनन्दको प्राप्त हुई । उसी दिन वह अहमिन्द्र उसके गर्भ में आया । तदनन्तर नवमें महीनेमें कार्तिक शुक्ला पौर्णमासीके दिन मृगशिरा नक्षत्र और सौम्य योगमें उसने तीन ज्ञानोंसे युक्त उस पूज्य अहमिन्द्र पुत्रको प्राप्त किया । जन्मकल्याणक सम्बन्धी उत्सव हो जानेके बाद उसका 'संभव' यह नाम प्रसिद्ध हुआ ।। १८-१६ ॥ इन्द्रोंने उस समय भगवान् संभवनाथ की इस प्रकार स्तुति की हे संभवनाथ ! तीर्थंकर नामकर्मके उदयके बिना ही केवल आपके जन्म से ही आज जीवोंको सुख मिल रहा है । इसलिए आपका संभवनाथ नाम सार्थक है ॥ २० ॥ हे भगवन् ! जिसमें अनेक लक्षण और व्यज्जनारूपी फूल लग रहे हैं तथा जो लम्बी-लम्बी भुजानरूपी शाखाओं से सुशोभित है ऐसे आपके शरीररूपी आम्रवृक्षपर देवोंके नेत्ररूपी भ्रमर चिरकाल तक तृप्त रहते हैं ॥ २१ ॥ हे देव ! जिस प्रकार स्याद्वादका निर्मल तेज कपिल आदिके मतोंका तिरस्कार करता हुआ सुशोभित होता है उसी प्रकार आपका निर्मल तेज भी अन्य लोगों के तेजको तिरस्कृत करता हुआ सुशोभित हो रहा है ।। २२ ।। जिस प्रकार सब जीवोंको आह्लादित करनेवाली सुगन्धिसे चन्दन जगत्का हित करता है उसी प्रकार आप भी साथ उत्पन्न हुए तीन प्रकारके ज्ञानसे जगत्का हित कर रहे हैं ॥ २३ ॥ हे नाथ ! आपके स्नेहसे बढ़ा हुआ यह लोक, दीपक के समान कारणके बिना ही हित करनेवाले तथा खजानेके समान देदीप्यमान आपको नमस्कार कर रहा है ।। २४ ।। इस प्रकार स्तुतिकर जिसने आनन्द नामका नाटक किया है ऐसा प्रथम स्वर्गका अधिपति सौधर्मेन्द्र माता-पिताके लिए भगवान्को सौंपकर देवोंके साथ स्वर्ग चला गया ॥ २५ ॥
१५
१ वसुधारादिमाहात्म्य क०, ख०, ग०, घ० । २ वदनस्यान्तः ल० । ३-दग्रिमे ल० । ४ त्रिदिवश्च्युतम् ख ०, ग० । ज्ञानत्रयसहितम् । ५ तव शरीराम्रवृक्षे टि० । तवाङ्गभूजे ल० । ६ भास्वरः ल० ।
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